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मिथ्या है सांसारिक प्रेम

मित्रो, प्रेम की चर्चा तो दुनिया में खूब होती है किंतु कुछ लोग इसे अच्छा मानते हैं तो कुछ लोग इसे बुरा। वास्तव में प्रेम तो साक्षात परमात्मा का प्रतिरूप होता है। उसके बारे में कोई चर्चा करना संभव ही नहीं क्योंकि वह वाणी से व्यक्त किया ही नहीं जा सकता है। वह तो स्वयं अनुभव करके ही समझा जा सकता है। यह बात आध्यात्मिक प्रेम और सांसारिक प्रेम दोनों पर लागू होता है। लेकिन एक बात बहुत गौर करने की है कि सच्चा व शाश्वत प्रेम अविनाशी परमात्मा से ही हो सकता है। नाशवान संसार से प्रेम झूठा होता है, क्योंकि वह शाश्वत नहीं, क्षणिक होता है। इसीलिए हमारे प्राचीन मनीषियों ने कई प्रसंगों में घोषित किया है कि सांसारिक प्रेम मिथ्या है। आइए, आज हम इसी विषय पर सर्व प्रथम चर्चा प्रारंभ करते हैं।

सांसारिक रिश्तों के बंधन में कैद मनुष्य प्रभु को भूल जाता है। वह समझता है कि संसार में जो प्यार मिल रहा है वह सच्चा है।  मेरी पत्नी, मेरे पुत्र, मेरे भाई-बन्धु मुझे वास्तव में प्यार करते हैं, बल्कि यदि मैं न रहूं तो वे मेरे बिना बहुत दुखी हो जाएंगे। लेकिन तथ्य यह है कि संसार के सारे रिश्ते-नाते क्षणभंगुर हैं। अभी हमारा कोई परम मित्र है तो वक्त व परिस्थितियां बदलने के साथ वह हमारा परम शत्रु भी बन सकता है। जो पत्नी मुझे प्राणनाथ कह कर पुकारती है, वही पत्नी मृत्यु के बाद मेरी सूरत देखकर भी डरने लगेगी। प्यारा बेटा मेरे इस पंचभौतिक शरीर को विधि पूर्वक श्मशान में जला देगा। इस संसार में फैली प्रीति के धागे एक झटके में टूट जाते हैं। क्षणभंगुर संसार से जुड़ी हर चीजें क्षणभंगुर हैं। अविनाशी तो एक मात्र परमपिता परमात्मा हैं। इसलिए उसी से की गयी प्रीति अविनाशी होती है। इसी भाव को हमारे सभी मनीषी व महापुरुष सनातन काल से लोगों को समझाते आ रहे हैं। सभी संत-महात्मा सांसारिक रिश्तों को मिथ्या व क्षणभंगुर बताते हुए प्रभु से बार-बार प्रार्थना करते हैं कि आप अपने अविनाशी प्रेम से मुझे कृतार्थ करें। प्रभु, आपसे हमारा मिलन कैसे होगा? हम तो आप की माया से भ्रमित होकर दिखाई देने वाले नाते-रिश्तों से और संसारी पदार्थों से स्नेह कर बैठे हैं और आपकी अविनाशी प्रीति को हमने भुला दिया है।

वास्तव में एक न एक दिन इस संसार को छोड़ ही देना है।  फिर भी पता नहीं क्यों यह जानते हुए भी मनुष्य क्षणभंगुर सांसारिक ऐश्वर्य की वस्तुओं को          एकत्र करता रहता है। संसार की कोई भी वस्तु परलोक में काम नहीं आती, फिर भी उसका जंजाल मनुष्य ने अपने गले में बांध लिया है। सांसारिक धंधों को बहुत फैला रखा है। मृत्यु के बाद ये धंधे किसी काम के नहीं हैं। ये तो इस संसार में ही छूट जाते हैं। इसलिए ऐ मनुष्य, तू केवल प्रभु से प्रीति कर और सांसारिक धंधों में उलझे रहने से कोई लाभ नहीं। कहा है -

सुमिरण की सुधि यूं करो, ज्यंू गागर पनिहार।

हाले डोले सुर्त में, कहे कबीर विचार॥

कबीर दास ने लोगों को प्रभु से जुडऩे का उपदेश देने के साथ यह चेतावनी भी दी है कि संसार के धंधों को छोडऩे की मूर्खता मत करो। क्योंकि संसार को छोड़ देेने मात्र से ही कल्याण नहीं होने वाला है। कल्याण तो प्रभु के सुमिरण से होना है। यदि घर-गृहस्थी छोड़ देेने के बाद भी प्रभु का सुमिरण नहीं हुआ तो कल्याण नहीं हो सकता है। इसके लिए कबीर साहब एक पनिहारिन का उदाहरण देते हुए कहते कि जिस प्रकार वह अपनी सखियों से बातचीत जारी रखते हुए साथ ही गोद में बच्चा संभाले हुए रहती है फिर भी सिर पर रखे पानी से भरे घड़े को अपनी सुरति से संभाले रहती है, गिरने नहीं देती है। उसी प्रकार संसार का सब काम करो और प्रभु का भजन करो।

लगभग सभी संत-महात्माओं ने सांसारिक प्रेम को झूठा कहा है और भगवान की भक्ति को अपने कल्याण का सर्वश्रेष्ठï साधन बताया है। कुछ संतों ने तो प्रभु की चर्चा न सुनने वाले लोगों के कानों की तुलना सांप के बिल से की है। और प्रभु का गुणानुवाद नहीं करने वाले लोगों की जीभ को संतों ने मेढक की जीभ की तरह टर्र-टर्र करने वाला निरर्थक बताया है। इस जीवन के गूढ़ रहस्य को मनुष्य तभी महसूस कर पाता है जब वह साधु-संतों की संगत में बैठकर प्रभु भक्ति की महिमा श्रवण करता है और प्रभु को तत्व से जानने के लिए समय के सद्ïगुरु के शरण में जाकर भक्ति के गूढ़ रहस्य का अनुभव प्राप्त करता है।

लेकिन सांसारिक मोह-ममता में फंसा जीव प्रभु की माया में ही खो जाता है। उसे यह याद नहीं रहता कि हमें इस संसार से कूच करना है। काल रूपी नाग मुंह फैलाए जीव के पीछे पड़ा हुआ है। पता नहीं कब यह काल हमें डंस लेगा। इसलिए सावधान हो जाने की जरूरत है। क्योंकि ज्यों ही समय पूरा होगा, वह हमें छोडऩे वाला नहीं है। हमारे देखते ही देखते अनेक लोग काल का कलेवा बन चुके हैं और कुछ बनने वाले हैं।  हमें इस गफलत में नहीं रहना चाहिए कि काल का नाग हमें डंसने से छोड़ देगा। याद रहे, जो काल आज दूसरों को अपने गाल में डाल रहा है वह कल हमें भी अपना आहार बनाने से नहीं चूकेगा।

बहुत पहले की बात है। अपने आश्रम में एक संत अपने शिष्यों को सत्संग सुनाकर उन्हें भक्ति मार्ग पर अग्रसर होते रहने का उपदेश दिया करते थे। वे अपने एक प्रिय शिष्य को हमेशा समझाया करते थे कि संसार में चेतन भाव से जाग्रत रहो। ये संसारी रिश्ते-नाते अंत समय काम नहीं आते। सच्ची प्रीति केवल भगवान से उत्पन्न करो। यह संसार एक मेले की तरह है, जो एक नियत समय के लिए है। समय पूरा होते ही मेला समाप्त हो जाता है और लोग अपने-अपने घरों को वापस चले जाते हैं। अपने-अपने कर्मों का फल भोगने के लिए हम सभी नाना प्रकार के रिश्ते-नातों के बहाने एक परिवार में एकत्र हुए हैं। आयु पूरा होते ही लोग एक-एक कर काल का कलेवा बन बिछुड़ते जाते हैं। अंत समय कोई साथ नहीं देता। मरने के बाद अपनी करनी ही साथ जाती है। प्रभु जब हमारी नेकीबदी का हिसाब-किताब लेता है वहां हमारी सहायता के लिए कोई भी रिश्ता-नाता सहायक नहीं बनता है।

उस संत के इन उपदेशों को सुनकर वह शिष्य बहुत झुंझला गया और गुरु जी से कहने लगा कि आप तो घर-गृहस्थी से विरक्त हैं। आपको तो मालूम ही नहीं कि संसार के रिश्ते-नातों का सुख कैसा होता है। घर-गृहस्थी की आलोचना करने के पहले सांसारिक रिश्तों में बंधकर तो देखो कि वहां जीव को कैसा रस प्राप्त होता है।  जितना मेरे माता-पिता, बहन-भाई, पत्नी और बच्चे मुझको चाहते हैं, यदि मैं उनको प्यार न करूं तो बताइए मेरे जैसा पापी कौन होगा? मेरे माता-पिता, भाई-बहन और पत्नी मेरे बिना एक दिन भी नहीं रह सकते। आप जैसे वैरागी लोग नहीं जान सकते कि सांसारिक धर्म का परिपालन करना कितना आवश्यक है। यदि मैं न रहूं तो मेरे बिना पूरा परिवार बर्बाद हो जाएगा। कोई जिंदा नहीं बच पाएगा। मेरे ही कमाई पर सब लोग अवलंबित हैं।

उसकी बातों को सुनकर उस संत को बहुत अचंभा हुआ। फिर भी उन्होंने अपने शिष्य की नासमझी पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और उसके कल्याण के लिए एक युक्ति और विधि बताकर उसे घर भेजा। उसे वचनबद्घ करते हुए घर में जाकर एक नाटक खेलने का निर्देश दिया। संत जी की बतायी योजना के अनुसार वह घर गया और घर जाने पर पेट दर्द के बहाने तड़पने लगा। उसने घर वालों को दवाई लाने के लिए कहा और बिस्तर पर लेटकर गुरु की बतायी विधि से प्राणायाम करते हुए अपनी सांसों को रोक लिया। इस बीच दवाई लेकर जब पत्नी घर में लेकर आयी तो उसकी सांस बंद देख उसे मरा समझ डर गयी। सोचा कि यह तो मर गया है, मेरी भूख बर्दाश्त नहीं होगी इसलिए रोने से पहले चोरी-छिपे  कुछ खा लूं। उसकी पत्नी को पता था कि हफ्ते-दस दिन भोजन एक ही समय मिलेगा वह भी सादा इसलिए उसकी पत्नी ने आटा में घी और शक्कर मिलाकर भूनकर प्रतिदिन खाने का सामान भी तैयार कर लिया कि कहीं रोते-रोते मैं ही न मर जाऊं। पत्नी की सारी करतूत उसका पति धीमी सांस लेते हुए ही देखता रहा। पत्नी ने जब सारी तैयारी करने और खाने के बाद रोना-धोना शुरू किया तो पति ने फिर अपनी सांसों को रोक लिया।  इतने में सब परिवार इक_ïा हो गया। सभी लोग रोने-धोने लगे। माता-पिता सिर पीटने  लगे कि बेटे के पहले तो हमें मरना चाहिए था।  पत्नी बोली- प्राणनाथ! तेरे बिना मेरा कौन है? मैं भी मर जाती तो अच्छा होता। वह युवक गुरु कृपा से अंदर ही अंदर सारा दृश्य देख रहा था। सारे गांव में हल्ला हो गया कि अमुक युवक मर गया है।

यह खबर सुनकर उस युवक के गुरुदेव वह संत भी वहां आ गये और बोले- मैं इसे अकाल मृत्यु से बचा सकता हूं। उन्होंने एक दूध का गिलास मंगवाया और कोई मंत्र पढ़ते हुए दूध में फूंक मारी और बोले- जो यह दूध पी लेगा, वह तो मर जाएगा किंतु यह युवक जीवित हो जाएगा। संत जी की बातों को सुनकर पिता ने दूध पीने से इनकार कर दिया और बोला - दूध पीकर खुद मर जाने से लाभ क्या है, जब मैं इसे जीवित होते हुए देख ही नहीं पाऊंगा। माता ने कहा कि प्रभु की इच्छा को कौन टाल सकता है यह तो एक होनहारी थी। कौन जाने दूध पीकर मैं मर भी जाऊं और यह जीवित न हो। मैं इस चक्कर में नहीं पड़ती। यह तो चला ही गया। यदि मैं मर जाती हूं तो सारा परिवार बिखर जाएगा। पत्नी की बारी आयी तो उसने भी दूध पीकर मरने से इनकार कर दिया। बोली - ये तो मर ही गये, यदि मैं मर जाऊं तो मेरे छोटे-छोटे बच्चों को कौन संभालेगा। यह तो बात ही बड़ी अजीब है। क्या आज तक किसी मरे हुए के लिए मरने से कोई मरा हुआ व्यक्ति जिंदा हुआ है कि जो आज जिंदा होगा।

परिवार के लोगों के विचार सुनकर उस संत ने कहा कि कोई बात नहीं। मैं ही दूध पी लेता हूं, यह मेरा प्यार शिष्य था। यह सुनकर घर के लोगों ने कहा कि महात्मा जी मरने-जिलाने का चक्कर छोडि़ए। अब इसे जल्दी से जल्दी श्मशान पहुंचाने की तैयारी की जाए।  अचानक लोगों को ध्यान आया कि उस युवक ने जमीन पर लेटते समय बेचैनी में अपने पैरों को मकान की थुम्बी में इस प्रकार अड़ा लिया था कि बिना थुम्बी को कांटे उसका शव बाहर नहीं निकल सकता था। तब गांव के लोग थुम्बी को काटने का जुगाड़ करने लगे। यह देख उस युवक की पत्नी ने एतराज किया कि मेरा पति तो मर ही गया। अब कौन नयी थुम्बी लगाएगा। थुम्बी को क्यों काटते हो, इसके पांव ही काटकर अर्थी निकाल लो। अब तो ये मर ही चुके हैं, टांग काटने पर दर्द नहीं होगा। मेरी थम्मी न काटो क्योंकि मेरी छत गिर सकती है। यदि छत गिर जाएगी तो मुझ विधवा का घर कौन बनवायेगा? इस प्रकार का वार्तालाप हो ही रहा था कि इसी बीच उस संत ने वह दूध स्वयं ही पी लिया। संत जी द्वारा दूध पी लिए जाने पर पूरा परिवार गुरु जी की जय-जयकार करने लगा। मां-बाप बोले - गुरुदेव! आप तो बड़े दयालु हैं जो हमारे बेटे के प्राण बचाने के लिए अपने प्राण दे रहे हैं।

दूध पीने के बाद गुरु जी ने शिष्य के सिर की एक खास नस को दबाया और उठने के लिए आदेश दिया। बोले- बेटा! अब फैसला कर लेने का समय आ गया है कि तेरा अपना कौन है जिसके लिए तू इतना प्रेम करता था और कहता था कि मेरे बिना इनका एक दिन भी निर्वाह होना कठिन है? अब तो तुम भली-भांति वाकिफ हो गये हो कि कोई भी तुम पर निर्भर नहीं है और कोई तुम्हें प्यार भी नहीं करता। यह तो तुम्हारा भ्रम है कि परिवार के लोग तुम्हें खूब प्यार करते हैं। इसके बाद उस भक्त ने अपने परिवार का सारा नजारा देखकर अपने परिवार और पत्नी से वैराग्य ले लिया। इस प्रकार झूठ और सच का फैसला हो गया और वह युवक समझ गया कि सांसारिक प्रेम मिथ्या है। सच्चा प्रेम तो अविनाशी परमात्मा से हो सकता है।

इसलिए हमारे सभी प्राचीन मनीषी व सच्चे साधु संत यह उपदेश देते हैं कि संसार क्षण-भंगुर है। इससे की गई प्रीति भी क्षणभंगुर होती है। इसलिए इस तथ्य को समझ कर अविनाशी प्रभु से ही प्रेम करना चाहिए। संतजन अपने मन के बहाने सबको समझाते है कि ऐ मन! तेरी आयु तो बीती जा रही है, इसलिए तू घट-घटवासी सत्यस्वरूप राम की भक्ति कर। उस राम की ओर बढ़ो जो अविनाशी हैं, उस राम को पाने की कोशिश करो जिसे पाने के बाद कुछ भी पाने के लिए शेष नहीं रह जाता है। सभी पहुंचे हुए साधु-संत लोगों को यही बात समझाते रहे हैं कि संसार से नहीं, राम से प्रीति कर। वे अन्य लोगों को ही नहीं बल्कि अपने मन को भी संबोधित करते हुए यही बात कहते हैं कि परमात्मा से प्रीति लगाए रहो। क्योंकि संसार का प्रेम कुछ दिन के लिए है और दु:खदायी है, परंतु यह जीव शरीर रूपी मकान में बैठा हुआ इंद्रियों के झरोखों द्वारा बाहर दृष्टिï दौड़ाकर अपना काम बिगाड़ बैठा है। यह जीव जिस अविनाशी परमात्मा का अंश है, उसके उपकार तथा कृपा को भूलकर मिथ्या व क्षणभंगुर पदार्थों से प्रेम कर बैठा है। जिसे एक न एक दिन अवश्य समाप्त होना है। सांसारिक प्रेम मिथ्या है। सच्चा और अविनाशी प्रेम तो परमात्मा से ही हो सकता है।