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ये जग है दो दिन का मेला

मित्रो, बड़ी प्रसन्नता की बात है कि आप लोग जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर कुछ विचार सुनने और जीवन में आने वाली समस्याओं के समाधान के उपाय जानने के लिए यहां एकत्र हुए हैं। मैं आज आप लोगों के सामने इस बात को स्पष्टï करने जा रहा हूं कि इस संसार में किसी को सदा के लिए नहीं रहना है। जीवन की एक नियत अवधि गुजारने के बाद सबको यहां से चले जाना है। इसलिए मैं इस विषय पर चर्चा करूंगा कि ये जग है दो दिन का मेला। आशा है कि आप लोग इसे गौर से सुनेंगे और लाभ उठाने की भरपूर चेष्टïा करेंगे।

सचमुच यह संसार हमारा स्थायी निवास नहीं है। जिस प्रकार किसी मेले में बहुत सारे लोग इक_ïे हो जाते हैं और मेला खतम होते ही सभी लोग अपने-अपने घर चले जाते हैं। उसी प्रकार इस संसार में रिश्ते-नातों, दोस्ती-दुश्मनी के बहाने लोग एकत्र होते हैं और नियत समय पर एक दूसरे से बिछुड़ते जाते हैं। किसी संत ने ठीक ही कहा है -

रे मन ये दो दिन का मेला रहेगा।

कायम न जग का झमेला रहेगा॥...

यह मेरा है, यह मेरा है - रटते हुए जाने कितने राजा-महाराजा इस संसार से विदा हो गए, किंतु यह वसुधा किसी की नहीं हुई। यह राज्य मेरा है, यह घर मेरा है, यह मेरी दौलत है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी पत्नी है कहते हुए लोग जाने कब से मिथ्या भ्रम के शिकार होते आ रहे हैं। यह देखते भी हैं कि कोई इस संसार में स्थायी रूप से रहता नहीं। एक न एक दिन सबको इस संसार से विदा हो जाना पड़ता है। फिर भी मिथ्या भ्रम का शिकार होकर लोग संसार के क्षणभंगुर सुखों के पीछे आपस में लड़ते रहते हैं। इस प्रकार लड़ते-झगड़ते ही इस संसार से विदा होने की वेला कब आ जाती है, इसका किसी को पता ही नहीं चलता। मरने के बाद  रिश्तेदार श्मशान तक ले जाते हैं और मृत शरीर को जलाने, जल में प्रवाहित करने या कब्र में दफनाने की रस्म अदा करने के बाद अपने रोजमर्रे के काम में लग जाते हैं। यह प्रक्रिया आज से नहीं, सनातन काल से जारी है। किसी ने ठीक ही कहा है -

गुल चढ़ाएंगे लहद पर जिनसे यह उम्मीद थी।

वो भी पत्थर रख गये सीने पे दफनाने के बाद॥

अर्थात जिन प्रियजनों से मैंने यह उम्मीद की थी कि मेरे मरने के बाद मेरे शव पर फूल चढ़ायेंगे, वे भी हमें निराश कर गये। वे भी मुझे दफनाने के बाद मेरे सीने पर पत्थर रख कर चले गये। शायर का कहना  पूरी तरह ठीक है। इस संसार की प्रीति झूठी है। संसार में मिलने वाला आदर-सत्कार व सम्मान क्षणभंगुर है। संसार में मिलने वाला कोई भी सुख शाश्वत नहीं होता और जीव चाहता है शाश्वत आनंद। क्योंकि  मूल रूप से वह परमानंद स्वरूप परमात्मा का ही अंश है जो उनसे बिछुड़ गया है। इसलिए उसकी चाहत में अब तक छटपटा रहा है। उसी आनंद को वह सांसारिक पदार्थों में ढंूढ़ा करता है। किन्तु क्षणभंगुर संसार में वह शाश्वत परम आनंद तो मिल ही नहीं पाता, किन्तु क्षणभंगुर विषयानंद में ही लगकर जीव अपना परम लक्ष्य भुला देता है। इस प्रकार बार-बार जनमने व मरने के चक्र में फंसकर जीव दुखी होता रहता है। लेकिन सामान्य तौर पर जीव ऐसा सोचता है कि यदि परमानंद न मिले तो सांसारिक आनंद तो मिले, लेना आनंद ही है क्योंकि यह आनंद से बिछड़ा हुआ उस परम आनंद को ढूंढता फिरता हैं-

आनंद आनंद सब कोई कहे, आनंद गुरु ते जानेयां।

आनंद पाने के लिए तो आज सारी दुनिया दौड़ रही है। खाने-पीने व मौज-मस्ती में लोग आनंद पाने के लिए ही संलग्न होते हैं। किंतु संसार के सभी सुखों का अंत दुख के रूप में होता है। अंत में मनुष्य को खाली हाथ ही इस दुनिया से कूच करना पड़ता है। वास्तव में शाश्वत आनंद    पाने की युक्ति तो समय के सद्ïगुरु की अनुकंपा से ही हासिल होती है। संसार के आनंद तो एक अवधि के बाद निश्चित रूप से समाप्त हो जाते हैं और जीव दुखी हो हाथ मलता रह जाता है। जीव मन की कल्पनाओं में खोया-खोया संसारिक सुखों को ही शाश्वत समझ उसी में लीन हो जाता है। और एक दिन ऐसा आता है कि संसार का सारा ऐश्वर्य छोडक़र उसे सदा के लिए इस संसार से विदा हो जाना पड़ता है। लेकिन उल्टे-सीधे विचारों में खोकर मनुष्य परम सत्य सिद्घांत को भूल जाता है और सांसारिकता की बेड़ी में जकड़ा रहता है। इस बात को इस दृष्टïांत से समझा जा सकता है।

एक समय की बात है कि सांसारिकता में पूरी तरह से डूबे एक सेठ को देखकर एक महात्मा को दया आ गयी। वे सेठ के पास परलोक सुधारने का उपदेश देने के लिए पहुंचे। काफी दिनों तक वे सेठ को नाना प्रकार के  दृष्टïांत देते हुए यह समझाने का प्रयत्न करते रहे कि यह संसार सपने की तरह है। इसका मोह त्याग कर भगवान की भक्ति करने में ही भलाई है। महात्मा के उपदेश को सेठ ढंग से समझ नहीं पाया और सोचा कि ये तो खुद विरक्त संन्यासी हैं और चाहते हैं कि मैं भी घर-बार त्याग दूं। उसने महात्मा से प्रार्थना की - महाराज! आप की बात पूरी तरह सही है। मैं भी चाहता हूं कि भगवान की भक्ति करना। किंतु अभी बच्चे अबोध हैं, बड़े होने पर जब उनकी शादी कर लूंगा तब परलोक सुधारने का यत्न करूं। तब महात्मा बोले - ये सांसारिक काम तो तेरे न रहने पर भी होते रहेंगे। यह तो तुम्हें अपने घर की  चौकीदारी मिली है भगवान द्वारा। लेकिन तुम खुद मालिक बन बैठ गये। ठीक है, तुम अभी अपनी घर-गृहस्थी संभालो। बाद में भगवान की भक्ति कर लेना। लेकिन याद रहे, भवसागर से मुक्ति तो भगवान की भक्ति करने से ही मिलेगी। समय पाकर सेठ के सभी बच्चे बड़े हुए और शादी होने के बाद अलग हो गये। फिर वह महात्मा सेठ के पास आए और बोले - सेठ जी! अब ईश्वर की कृपा से सब कार्य सिद्घ हो गए हैं, कुछ समय निकाल कर भगवान का भजन-सुमिरन करो। बेड़ा पार हो जाएगा। सेठ बोला- महाराज! अभी तो पोते भी नहीं हुए। पोतों का मुंह तो देख लेने दीजिए। तब महात्मा बोले- मैं तुझे त्यागी बनने के लिए नहीं कहता। तू मूर्खतावश मेरे भाव को नहीं समझ पा रहा है। मेरे कहने का भाव तो यह है कि संसार के मोह और अज्ञानता के चंगुल से मन को हटाकर प्रभु की भक्ति में लगाओ। तब सेठ बोला- यदि मन प्रभु की भक्ति में लग गया तो संसार के धंधे कौन करेगा? वह मन कहां से लाऊंगा? बिना मन लगाये दुनिया के काम-धंधे और सांसारिक कर्तव्य पूरे नहीं हो पाते। महात्मा बोले- मैं तुम्हारे ही उद्घार के लिए कह रहा हूं कि बिना भगवान की भक्ति किए कल्याण नहीं होगा। सेठ बोला- पहले संसार के काम-धंधों से मुक्त तो हो लेने दो। परिवार का कल्याण पहले कर लूं, फिर आपकी सुनूंगा।

इस प्रकार समय गुजरता गया और एक दिन सेठ का स्वर्गवास हो गया। प्रारब्धवश वह सेठ छोटा पिल्ला के रूप में पैदा होकर पुन: उसी घर में आ गया। तब उसके पोते ने रसोई में उसे घुसा देखकर जोर से डंडा मारा। डंडा लगते ही वह मर गया और फिर सांप का जन्म लेकर उसी घर में रहने लगा। एक दिन घर वाले सांप देखकर डरे और उसे मार दिया। फिर मोहपाश में बंधकर पुन: उसी घर की गंदी नाली में एक मोटे कीड़े के रूप में पैदा हुआ। उस कीड़े को देखकर सब घर वाले बड़े चकित हो गये। उन्हीं दिनों वे महात्मा भी घर में पधारे हुए थे। सबने महात्मा जी को वह मोटा कीड़ा दिखाया। तब अंर्तदृष्टिï से उस महात्मा ने देखा तो पाया कि यह तो वही सेठ है। उसकी ऐसी दुर्गति देखकर उस महात्मा ने अपने जूते से उस पर प्रहार किया जिससे वह कीड़ा वहीं मर गया और सद्ïगति पाकर अगला जन्म में मानव शरीर पाया और फिर उसी महात्मा का सेवक बना जो समय के सद्ïगुरु भी थे।

यह दृष्टïांत कोई ऐसी कथा नहीं जिसके सत्य होने का दावा किया जाए। किंतु इसे असत्य भी नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टïांत के माध्यम से लोगों को जीवन के वास्तविक उद्देश्य को पाने के लिए प्रेरणा दी गई है जिससे मनुष्य क्षणभंगुर संसार के मोहपाश में न फंसे और अविनाशी सत्य से जुडऩे की चेष्टïा आज और अभी से प्रारंभ कर दें। अंतत: मनुष्य को परमात्मा की भक्ति करके ही अपना जीवन कृतार्थ करना चाहिए। इसी वजह से सभी महापुरुषों ने मानव शरीर का सदुपयोग भगवान की भक्ति करने में ही बताया है।  गुरुवाणी भी कहती है -

कहु नानक भजु राम नाम नित जाने होत उधार।

अर्थात भगवान के नाम का भजन सुमिरण करने में ही जीवन का अधिकांश समय बिताना चाहिए। ऐसा करने से ही भवसागर से जीव का उद्घार होता है।

वास्तव में संसार के काम धंधे जिनसे पेट भरता है और सांसारिक वैभव व सुख-समृद्घि की अभिवृद्घि होती है किंतु अंत समय में उन्हें यहीं छोडक़र जाना पड़ता है। कोई भी चीज साथ नहीं जाती। अविनाशी प्रभु की भक्ति से जो आनंद मिलता है, वही शरीर छूटने के बाद भी काम आता है। मानव तन के रूप में जीव को एक सुअवसर मिला हुआ है, कभी भी इस मौके से नहीं चूकना चाहिए। यह संसार तो दो दिन के मेले की तरह है जिसमें जीव अनेक प्रकार के रिश्ते-नातों के रूप में एक जगह इक_ïे होते हैं और कुछ समय के बाद संसार से विदा भी हो जाते हैं। माया-मोह में फंसा मनुष्य चाहता है कि संसार का सारा दायित्व मैं जीते जी निभा लूं। भगवान की भक्ति को मनुष्य हमेशा भविष्य पर टालता रहता है। साधु-संत लोगों को बार-बार यही समझाते हैं कि भगवान की भक्ति करने में ही भलाई है। सांसारिक झमेले तो दो दिन के मेले की तरह हैं। लोग अज्ञानता के अंधकार में इस प्रकार भटक रहे हैं कि उन्हें इस सत्य का अहसास ही नहीं होता कि यह संसार दो दिनों का मेला है। यहां किसी को सदैव नहीं रहना है।