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आओ शक्ति का बोध प्राप्त करने की युक्ति से जीवन को सार्थक करें

विजय दशमी के रूप में प्रसिद्घ यह त्योहार पूरे देश में विभिन्न नामों और तरीकों से मनाया जाता है। इसके मनाने के पीछे सामाजिक और धार्मिक परंपराएं तो हैं ही साथ ही साथ इसकी पृष्ठïभूमि में कुछ पौराणिक और एतिहासिक संदर्भ भी प्रस्तुत किये जाते हैं।

यह महान पर्व आदि शक्ति देवी भगवती दुर्गा की आराधना का पर्व है जो उनकी दिव्य शक्तियों से अवगत कराते हुए हमें सत्य पथ पर चलने की प्रेरणा देता रहता है। यह शक्ति स्वरूपा देवी दुर्गा सर्व देवी-गुणों (ज्ञान, भक्ति, विवेक और वैराग्य आदि) से संपन्न आदि शक्ति मानी जाती हैं। आदि शक्ति के गुणों की चर्चा दुर्गा-सप्तशती और श्रीमद्ïभाग्वत पुराण नामक धर्म ग्रंथों में बड़े विस्तार से मिलती है। उन्हीं ग्रंथों के आधार पर देवी की आराधना आश्विन के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक नवरात्र उत्सव के रूप में की जाती है। कहीं-कहीं दशमी के दिन रामलीला (मर्यादापुरुषोत्तम भगवान रामचंद्र के जीवन और कार्यों पर आधारित नाटक) का आयोजन भी होता है। क्योंकि जनश्रुति है कि इसी दशमी के दिन रामचंद्र जी ने अन्यायी और अत्याचारी शासक रावण पर विजय प्राप्त की थी।

परंतु किसी भी प्रसिद्घ गं्रथ में यह चर्चा नहीं है कि राम ने इसी दिन ही रावण का वध किया। हां, यह चर्चा अवश्य है कि इसी दिन राम ने रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए अपनी विजय यात्रा प्रारंभ की थी। किंतु जनश्रुति के आगे धर्म ग्रंथों की बात दब सी गयी और लोग इस दिन को रावण का मारा जाना ही सही मानते हैं और जगह-जगह इसी दिन रावण के पुतले भी जलाये जाते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि स्वयं भगवान रामचंद्र ने लंका पर चढ़ाई से पूर्व नवरात्र में आदि शक्ति देवी भगवती की पूजा की थी। अत: आदि शक्ति दुर्गा और श्री रामचंद्र में श्रद्घा रखने वाला हर श्रद्घालु भक्त बड़े उत्साह और हर्षोल्लास के साथ विजयादशमी पर्व को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से मनाता है। वैसे तो हर पर्व के पीछे कोई न कोई धार्मिक और आध्यात्मिक कारण रहता है, लेकिन इस महान पर्व की महिमा इसीलिए विशेष है कि इसका मुख्य संबंध शक्ति से है। जिसकी महिमा प्राचीन ऋषियों और आधुनिक वैज्ञानिकों दोनों ने समान रूप से स्वीकार किया है। एक तरफ- दुर्गा सप्तशती में आदि शक्ति को सृजन और संहार से परे बताते हुए उन्हें सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक बताया गया है। शक्ति को अजर, अमर, अनादि और अनंत बताते हुए उसे हर प्राणी और वस्तु में स्थित कहा गया है। यथा-

या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता.....।

और, दूसरी तरफ विज्ञान कहता है Energy is neither created nor destroyed अर्थात  शक्ति (ऊर्जा) का न तो सृजन होता है और न विनाश होता है। परंतु देवी, जिसकी आराधना सभी देवी भक्तों ने की है, उसे शक्ति का एक चैतन्य स्वरूप माना गया है। दूसरी तरफ विज्ञान के अनुसार शक्ति उत्पत्ति और संहार से परे तो है, परंतु जड़ है, अचेतन है। फिर भी दोनों मान्यताओं के अनुसार यह सभी भूत प्राणियों और सभी अणु-परमाणुओं में स्थित है। स्पष्टï है- यह हर मनुष्य के अंतरतम में भी स्थित है। संभवत: इसीलिए स्वामी विवेकानंद जी का कहना है- अपने अंदर के देवत्व को प्रकट करो। इसको प्रकट करने के लिए कुछ विशेष प्रयत्न करने की जरूरत है, जिनमें अंतर्मुख करने वाले साधनों का अभ्यास सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। परंतु जब हम केवल बाहरी पूजा-आराधना तक ही सीमित रहते है, या भौतिक शक्तियों की प्राप्ति मात्र के लिए ही जप-तप, संयम का सहारा लेते हैं तो हमें अंदर मुडऩे का अवसर नहीं प्राप्त हो पाता। इसके विपरीत हम बहिर्मुखी हो जाते हैं और बाह्यï सिद्घियों की प्राप्ति कर केवल यश और अहं के चपेट में आ जाया करते हैं, अर्थात अविद्या का दास बनकर अज्ञानांधकार में भटकने लगते हैं।         संयोगवश कोई व्यक्ति जब समय के सच्चे अनुभवी संत-महापुरुष के संपर्क में आता है तो उसे उनसे अंतर्मुख होने वाला साधन अर्थात तत्वज्ञान की प्राप्ति होती है जिससे सच्ची शक्ति (देवी) या देवत्व की पहचान होती है। क्योंकि देवी को दुर्गा सप्तशती में ज्ञानस्वरूप भी कहा गया है। यथा-

या देवी सर्वभूतेषु ज्ञानरूपेण संस्थिता....।

अर्थात वह आदि शक्ति हर भूत प्राणी में ज्ञान के रूप में विराजमान है, जिसे व्यावहारिक रूप से जानकर उपासना करना ही सच्ची आराधना है, सच्ची देवी पूजा या दुर्गा पूजा है। वास्तवमें दशहरा मनाने का यही सर्वोत्तम तरीका है। जब हमारे आंतरिक अनुभव शक्ति के प्रभुत्व से हमारे अंदर उपस्थित अज्ञानजनित विकारों की पराजय होगी तभी हम सही मायनों में रावण पर राम की विजय यात्रा को अपने वर्तमान जीवन में उतार पायेंगे। दशहरा पर्व हम सभी को ऐसा ही करने (शक्ति बोध या आत्म बोध प्राप्त करने) की प्रेरणा प्रदान करता है।

पुन: इस संदर्भ में यह कहना अनुचित न होगा कि आज जब संसार में सभी तरफ शक्ति संतुलन की बात की जा रही है उसकी शुरुआत हर व्यक्ति अपने आप से करे। क्योंकि अतीत से प्रारंभ शक्ति संघर्ष आज भी लाख प्रयत्न के बावजूद जारी है और इस धरती पर पहले ही मनुष्यों ने कितनी विनाश लीलाएं देखी हैं।

अत: ऋषि मुनियों द्वारा निर्दिष्टï चैतन्य आदि शक्ति और आधुनिक भौतिक विज्ञान वेत्ताओं द्वारा बतलायी गयी अचेतन शक्ति के बीच लुप्त कड़ी को किसी समय के मार्गदर्शक महापुरुष की शरणागत होकर जानने का प्रयत्न करें। उस लुप्त कड़ी का अहसास हर व्यक्ति को जब व्यक्तिगत स्तर पर होगा, मात्र सैद्घांतिक ही नहीं, स्वानुभूति पर आधारित होगा। तब स्वत: ही हम एक सुंदर सामंजस्य की तरफ अग्रसर होंगे और यह विश्व में शक्ति संतुलन स्थापित करने में एक आधार का काम करेगी। वह लुप्त कड़ी को किसी समय के मार्गदर्शक महापुरुष की शरणागत होकर जानने का प्रयत्न करें। उस लुप्त कड़ी का अहसास हर व्यक्ति को जब व्यक्तिगत स्तर पर होगा, मात्र सैद्घांतिक ही नहीं, स्वानुभूति पर आधारित होगा। तब स्वत: ही हम एक सुंदर सामंजस्य की तरफ अग्रसर होंगे और यह विश्व में शक्ति संतुलन स्थापित करने में एक आधार का काम करेगी।

वह लुप्त कड़ी और कुछ नहीं, हमारी अपनी ही मूल शक्ति है, वह हमारे अस्तित्व की मूल इकाई है। उस मूल शक्ति के बोध के अभाव में विश्व की विकट परिस्थितियों का कोई समाधान निकलता प्रतीत नहीं होता। अफसोस है कि लोग उस मूल शक्ति को जानने पहचानने तथा पूर्ण मनुष्यत्व की मूल अवधारणा को अपनाने आदि की बातें तो करते हैं, किंतु बहुत कम लोग अपने गोरखधंधे से थोड़ा समय निकालकर इस महत्वपूर्ण पहलू पर विचार करते हैं, आगे कदम बढ़ाकर इसकी अनुभूति प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। आएं, हम दशहरा पर्व पर अपने आप में बैठी रावणी वृति के पराभव के लिए आदि-शक्ति की वास्तविक आराधना करें। अपनी मूल शक्ति का व्यवहारिक बोध प्राप्त करने की युक्ति जानकर इस जीवन को सार्थक करें।