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वह मददगार

जब मनुष्य का जन्म एक नवजात शिशु के रूप में होता है, उस समय उसका हृदय कोमल और श्वेत वस्त्र की भांति निर्मल होता है। परंतु जैसे-जैसे उसका शारीरिक विकास होता है, साथ ही जिस प्रकार के संपर्क में रहने का उसे मौका मिलता है, उसके अंदर अच्छे और बुरे संगत का असर पडऩा शुरू हो जाता है।

बड़ा होने पर अपने और पराये के ज्ञान के साथ अन्य प्रकार के ज्ञान हासिल करने की भी क्षमता उसमें बढऩे लगती हैं। इसके बाद वह खुद अपने बारे में निर्णय लेने के अधिकार को समझने लगता है। इंसान होने के नाते वह यह सहज में ही समझ सकता है कि सृष्टिïकर्ता ने हम सभी को जो जीने के लिए जिंदगी दी है, यह अवसर प्रदान किया है उसमें हमारा अपना कोई सचेतन प्रयास नहीं रहा है। यह एक ऐसा तथ्य है जिससे कोई असहमत नहीं हो सकता। फिर भी कुछ ऐसी आदतों के वश में होकर मनुष्य अपने बारे में सोचना ही नहीं चाहता और इस अनमोल मानव जीवन को, जो देव-दुर्लभ कहा गया है, व्यर्थ ही खो देता है। वइ अनमोल अवसर खो देता है।

आज तक मैंने जो अनुभव किया है वह यही कि मनुष्य चाहे कैसा भी हो परंतु यदि जीवित हो और इतना समझता हो कि अपने बारे में हमारी कुछ जिम्मेदारी है, तो उसे इस दुनिया में मदद जरूर मिल सकती है। क्योंकि वह मददगार हमारे ही अंदर रहकर हमारी प्रतीक्षा कर रहा है, हमारी मदद करने के लिए हमारी बाट देख रहा है। परंतु आवश्यकता है कि हममें इस बात की जागृति हो जाए, हम उसकी मदद पाने के लिए स्वयं प्रस्तुत हो जायें।

जब सच्चे महापुरुष आते हैं तो दुनिया से कुछ लेते नहीं और दुनिया से कुछ मांगते नहीं हैं। वे उस भेद को बतलाना चाहते हैं जो हमारे अंदर पहले से ही विद्यमान है। सिर्फ उससे जुडक़र आनंद पाने की जिज्ञासा जगाने के उद्देश्य से वे जन-मन में नवचेतना का संचार करते हैं।

मैं अपने जीवन में पहले एक दिग्भ्रमित व्यक्ति की तरह यत्र-तत्र शांति की तलाश किया करता था, परंतु मेरे ज्ञानदाता गुरु जी ने असीम दया करके मुझे ज्यादा भटकने से रोक लिया और अंतनिर्हित शांति के स्रोत से जुडऩे का सरल रास्ता बता दिया। आज उनकी कृपा से मैं प्रसन्न रहता हूं और उनकी सेवा में, उनकी आज्ञा में जीना सुख समझता हूं। धन्य हैं ज्ञानदाता महाराज जी, जिनकी मदद से मेरी जिदंगी बेहाल होने से बच गयी और मेरा मानव-जीवन सही मायने में सार्थक हो गया।