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सुख की अनुभूति और सच्चा मार्ग दर्शन

प्रत्येक प्राणी को सुख-दुख की अनुभूति होती है। यह अहसास मानसिक संवेदना पर आधारित होता है। हमारे शरीर, मन, बुद्घि, चित्त और अहंकार आदि के अनुकूल होने वाले प्राकृतिक वातावरण और सामाजिक परिवेश सुख देते हैं जबकि इसके प्रतिकूल परिवेश द्वारा दुख की अनुभूति होती है। कोई भी व्यक्ति दु:ख नहीं चाहता है। उसमें संभवत: सुख भोगने की इच्छा रहती है। मनुष्य अपने सुख प्राप्ति के लिए सदैव तरह-तरह के कार्य करता है। यहां तक कि सुख पाने के लिए हिंसा करने से भी नहीं हिचकता है। फिर भी ये बाहरी सुख-सुविधाएं मनुष्य को अपने मूलभूत जीवन के सौंदर्य का अनुभव नहीं करा पातीं। मनुष्य अपने अंदर में विद्यमान जीवनी शक्ति की झलक धुंधले रूप में यदा-कदा अवश्य महसूस करता है। परंतु व्यावहारिक रूप से उसके अस्तित्व के आनंद से एकाकार नहीं हो पाता। फलस्वरूप वह निरंतर भूख-प्यास, सदी-गर्मी जैसी सारी स्थितियों को झेलते हुए सुख की कामना में यह जीवन जैसे-तैसे गुजारता रहता है। अपने आप से जुडऩे की सही तकनीक की जानकारी के अभाव में वह बहिर्मुखी बना रहता है, जिससे दु:ख उठाने की अनिच्छा रहने पर भी बराबर दु:ख ही उठाता रहता है। सुख प्राप्ति का अवसर उसे कम ही मिलता है।

मनुष्य को छोडक़र अन्य जीवों को दु:ख-सुख भोगने में प्रकृति की ओर से परवशता की बेड़ी है, अर्थात भोग योनि में होने के कारण वे स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकते। मनुष्य को छोडक़र अन्य जीव सुख प्राप्ति के लिए अपने अंतरतम में जाने का प्रयास नहीं कर सकते। परंतु मनुष्य अपने अंतरतम में जाने का प्रयास कर सकता है। यदि वह चाहे और प्रयास करे तो वह उसके लिए सहज हो सकता है। किंतु अधिकांश मनुष्य इस दिशा में कोई पहल नहीं करते। वे एक महत्वपूर्ण कार्य क्षेत्र से अनभिज्ञ बने बैठे हैं। मनुष्य यद्यपि बौद्घिक रूप से ऊंचा है, वह अपने चिंतन और कार्यों द्वारा सुखी होने का प्रयास करता है। कभी-कभी वह प्राकृतिक नियमों के प्रतिकूल भी चलने की हिम्मत दिखाता है और मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को अपने कार्यों द्वारा दूर करता है। वह निरंतर प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है और बहुत हद तक सफल भी हो रहा है। बहुत से वैज्ञानिक साधनों को तैयार कर मानव को सुखी बनाने की दिशा में प्रयत्नशील हैं। उनका सदैव यही प्रयास रहता है कि भौतिक तौर पर मनुष्य की सुख-सुविधाओं में किसी प्रकार की कमी न होने पावे। ऐसी भावना मनुष्य के अंदर से स्फुरित होती है। वह मनसा वाचा कर्मणा निरंतर और स्थायी सुख प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है।

मनुष्य के अंतरतम (हृदय) में सुख का खजाना है, किंतु सबको उसकी जानकारी नहीं है। यदि बौद्घिक स्तर पर किसी को कुछ जानकारी है भी तो व्यावहारिक रूप में उसे वह नहीं मिल पा रहा है। किंतु स्वभावत: ही वह अंदर से उसे पाने का प्रयास करने की प्रेरणा प्राप्त कर रहा है। अंतरतम में जाने के लिए उसे एक सिद्घहस्त मार्गदर्शक (कुशल गुरु) चाहिए, किंतु सफल मार्गदर्शक खोजने में बराबर भूल होती रहती है। क्योंकि मनुष्य शब्दों के बाह्यï आडंबरों में फंस कर यह विचार नहीं करता कि मार्गदर्शक (गुरु) बनने का दावा करने वाले व्यक्ति में मात्र सैद्घांतिक वाक्ï-पटुता है या वह क्रियात्मक रूप से हमारे अंतरतम में छिपे सुख-शांति के अपरिमित खजाने तक पहुंचने की विधि बताने की घोषणा भी करता है। सच्चे मार्गदर्शक के स्थान पर झूठे और भुलावा देने वाले मार्गदर्शकों का चुनाव होता रहता है। यही कारण है कि उसको अंदर से तो प्रेरणा होती है कि वह सुख प्राप्त करें, किंतु दु:ख ही मिलता है।

सच्चे मार्गदर्शक की खोज करना अति आवश्यक है क्योंकि उसके बिना जीवन अधूरा और सूना-सूना रहता है, हृदय में शाश्वत सुख का अभाव सदैव खटकता रहता है। दूसरें शब्दों में सच्चे मार्गदर्शक की खोज करना, जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति करना है। परंतु सच्चे मार्गदर्शक कहां मिलें, हम किस पर विश्वास करे, यह भी एक समस्या है।

यदि कोई रोगी किसी डाक्टर के पास जाकर रोगमुक्त होता है तो वह उसी का गुण गाता है। उस रोगमुक्त व्यक्ति के संपर्क में आया हुआ दूसरा रोगी व्यक्ति भी उसी डाक्टर के पास जाने का प्रयास करता है और अगर वह भी रोग मुक्त हो जाता है तो डाक्टर पर लोगों का विश्वास जम जाता है। स्पष्टï है, व्यक्तिगत संपर्क में जाकर उसके द्वारा बतायी गयी औषधि का उपयोग करके ही कोई रोगी डाक्टर की योग्यता का आकलन कर सकता है। एक रोगी के लिए डाक्टर की परीक्षा की यही कसौटी होती है। उसी प्रकार जिसकी कृपा से अपने ही अंतरतम में स्थित शाश्वत सुख की खान से व्यावहारिक रुप से पहुंचने में सहायता मिलती है। उसी समय के तत्वदर्शी सद्ïगुरु की शरण लेने पर ही ऐसा संभव हो सकता है। अपने आप से कैसे जुडऩा है, कैसे अपने आपा का परिचय प्राप्त करना है, इसकी प्रक्रिया सच्चे जिज्ञासुओं को सद्ïगुरु द्वारा प्रदान की जा सकती है।

प्रकृति द्वारा प्रदत्त प्रत्येक वस्तु में निश्चय ही सुख है किंतु उसकी अनुभूति इंद्रियों के माध्यम से होती है और थोड़े समय के लिए होती है। इस प्रकार के सुख भोगते-भोगते मनुष्य बूढ़ा हो जाता है किंतु अंदर से असंतुष्टï ही रहता है।

सद्ïगुरु के द्वारा दिये गये ज्ञान की अनुभूति से जीवन के हर पहलू पर एक संतुलन, एक पैनी परख और एक अद्ïभुत संतुष्टिï का अहसास संभव है। कोई भी मनुष्य यदि उस मार्ग में बढऩे का बराबर और लगातार प्रयास करे तो उसे अंतरतम की संतुष्टिï अवश्य मिल सकती है और वह सुखी हो सकता है।

अंतरतम की संतुष्टिï अपने आप में पूर्ण रूप में विद्यमान हैं। वह किसी वस्तु विशेष से जुडऩे का परिणाम नहीं है बल्कि रचयिता की ओर से प्रत्येक मानव के अंदर दी हुई है। उससे कैसे जुड़े, इसी के लिए मनुष्य को सच्चे मार्गदर्शक से सही विधि की जानकारी प्राप्त करने हेतु प्रयास करने की आवश्यकता है।

मार्गदर्शक सद्ïगुरु सच्चे मिल गये- इसकी पुष्टिï स्वयं अंदर में प्राप्त अनुभूति, आनंद और प्रेम से होती है। ऐसा आनंद प्राप्त करने वाला मनुष्य स्वयं निर्णायक होता है। जब मनुष्य को उस असली सुख का परिचय मिलता है तो वह कृतार्थ हो जाता है।