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बोध कथा

हमारे प्राचीन मनीषियों ने विविध प्रसंगों में इस संसार को सपना कहते हुए इसकी क्षणभंगुरता को विशेष रूप से रेखांकित किया है। सपना तो सपना होता है। सपने में एक भिखारी भी राजा बन जाता है और राजा भी रंक की तरह दर-दर की ठोकरें खाने लगता है। लेकिन उस सपने का वास्तविक दुनिया में कोई महत्व नहीं होता। जागने के साथ ही सपने का संसार समाप्त हो जाता है। फिर भी एक बात विशेष रूप से गौर करने वाली है कि कोई भी सपना सपना के दौरान पूरी तरह यथार्थ नजर आता है। उस समय ऐसा नहीं लगता कि यह सब झूठ है। फिर भी सपने का यथार्थ से कोई सम्बंध नहीं होता।

कहते हैं गोनू झा को उनकी पत्नी उठा रही थी। वह कह रहे थे - अभी नहीं। ठहर, अभी नहीं।

फिर घड़ी भर बाद पत्नी ने उठाया। गोनू झा ने कहा - अरी भागवान, तूने सब कुछ नष्ट कर दिया। एक आदमी सपने में मुझे निन्यानबे रुपये दे रहा था। और मैं जिद पर अड़ा था कि सौ। और बेवक्त तूने जगा दिया। फिर कितनी ही आंख बंद की, वह दिखायी नहीं पड़ता। वे निन्यानबे रुपये भी गये। मैंने उससे बाद में यह भी कहा कि अच्छा चलो, निन्यानबे ही सही, अठानबे ही सही! आखिर एक तक आ गया। पर वह दिखायी नहीं पड़ता। बेवक्त तूने जगा दिया। जरा रूक जाती तो क्या पहाड़ टूट जाता। लेकिन तेरी पुरानी आदत है - बेवक्त।

मेरे मित्रो, यह तथ्य है कि जब कोई व्यक्ति मधुर सपना देखता है, तब वह पत्नी क्या, प्रबुद्घ महापुरुषों के उपदेशों को भी नहीं सुनना चाहता। क्योंकि उस समय वह गोनू झा की तरह निन्यानबे-सौ के चक्कर में फंसा रहता है। उसमें वह कोई बाधा नहीं चाहता। क्योंकि उसका सपना अपने पूर्ण सुख के करीब पहुंचने वाला रहता है।

लेकिन याद रहे, सपना तो सपना है - चाहे सुखद हो, चाहे दुखद। सपना तो झूठ का पुलिंदा होता है जिसका कोई मूल्य नहीं होता। सपने के दौरान सपना भले ही सुखद हो या दुखद हो किन्तु आंखें खुलने के बाद उनका कोई मूल्य नहीं होता। उसी प्रकार हमारा भौतिक जीवन है। भौतिक जगत की सुख-सुविधाओं के संचय में हम अपनी आत्मा की वास्तविक सुख-शांति से आंखें मूंदे रहते हैं। हम भौतिक सुख-सुविधाओं के जुगाड़ के सपने में खोये रहते हैं। किंतु जब किसी वजह से सपना टूटना है तब पता चलता है कि वह तो झूठा था, वह तो सपना था। और सपना तो सपना ही होता है। सत्य ही शाश्वत है और भ्रमवश हम उससे आंख मूंदे रहते हैं। अब भी वक्त है। आज और इसी क्षण सपनों से बाहर निकलो।