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इच्छा और परीक्षा

हर इंसान में उसकी कुछ न कुछ इच्छाएं हुआ करती हैं। उसी के अनुरूप वह कार्य करता है। परंतु वह कार्य कहां तक सही या कहां तक गलत हैं इसकी जांच तथा अगर सही भी है तो उसकी स्वीकृति हेतु परीक्षा से गुजरना अनिवार्य है।

मनुष्य अपनी बढ़ती हुई और बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार नयी-नयी चीजों का आविष्कार करता है अथवा किसी तकनीक (ञ्जद्गष्द्धठ्ठशद्यशद्द4 ) और कला (्रह्म्ह्लह्य ) को सीखता है। वह उसे सीख पाया है कि नहीं इसके लिए उसकी परीक्षा होती है। इस प्रकार जो भी व्यक्ति जीवन और जगत में उत्तरोत्तर आगे बढऩा या विकास करना चाहता है तो उसे उस विषय के संबंध में जानने, सीखने और समझने की दृढ़ इच्छा तो आवश्यक है ही साथ ही समुचित जानकारी की, किसी योग्य परीक्षक द्वारा परीक्षा भी अनिवार्य है।

फिर, परीक्षा ही तो एक मापदंड है जिसके आधार पर परीक्षार्थी को डिग्रियां या प्रमाण पत्र मिलते हैं। जिसके आधार पर वह किसी काम-धंधे या उद्योग के लिए योग्य समझा जाता है। उसके बाद साक्षात्कार (ढ्ढठ्ठह्लद्गह्म्1द्बद्ग2 ) में जो एक परीक्षा का ही रूप है, सफल होने पर उसे विश्वास के साथ बड़ी से बड़ी जिम्मेदारियों सौंप दी जाती हंै।

आज तो यह देखने में आता है कि स्वेच्छाचार और कदाचार की बहुलता है। कई विद्यार्थियों में किसी प्रकार से भी परीक्षा पास कर लेने की तो तमन्ना है। किंतु सीखने की दृढ़ इच्छा का अभाव है। वे बिना आवश्यक परिश्रम और मेहनत के ही परीक्षा में सफल होना चाहते हैं। कई बार तो परीक्षक भी इस कदाचार में संलिप्त और लालच का शिकार हुआ दिखता है। यही कारण है कि बिना परीक्षा दिये हुए ही बहुत जगहों पर नकली डिग्रियां और सर्टिफिकेट छुप-छुपकर बिकते हैं। पैसे और प्रभाव से बड़े-बड़े और महत्वपूर्ण पदों पर अयोग्य तथा गैर जिम्मेदार लोग भी बैठ रहे हैं। यह सब गिरे हुए शिक्षण-प्रशिक्षण, परीक्षा तथा परीक्षण के स्तर के परिणाम हैं।

ऐसी अवस्था में शिक्षार्थी या परीक्षार्थी तथा परीक्षक को याद दिलाये जाने की जरूरत है कि परीक्षा शिक्षा का एक अभिन्न अंग हैं। परंतु याद दिलाये तो कौन? इसका उत्तर हमें ईमानदारी और गंभीरता से ढूंढऩा होगा। अर्थात हमें एक सच्चे शिक्षक (ञ्जह्म्ह्वद्ग ञ्जद्गड्डष्द्धद्गह्म् ) तथा सच्चे परीक्षक (ञ्जह्म्ह्वद्ग श्व3ड्डद्वद्बठ्ठड्डह्म् ) की तलाश करनी होगी जो विद्या और विद्यार्थी के तारतम्य को बनाये रखें। दोनों में सही ढंग से सामंजस्य स्थापित कर सकें।

कहा भी हैं कि 'विद्या ददाति विनयं।Ó अर्थात सच्ची विद्या या सीख से नम्रता आती है। जो सभी गुणों की खान है। यही नम्रता मनुष्य को आजीवन एक विद्यार्थी बनाये रखती है। एक बालक की भांति जो कुछ वह सीखना चाहता है, सीखता चला जाता है और उसकी सच्ची सीख (ञ्जह्म्ह्वद्ग रुद्गड्डह्म्ठ्ठद्बठ्ठद्द) ही उसे परीक्षा की घडिय़ों में खरा उतारती है। इस प्रकार इच्छा और परीक्षा का एक अनोखा मिलन होता है। परीक्षार्थी अपनी लगन, मेहनत और आत्म-विश्वास के फलस्वरूप हंसते-हंसते सफलता की मंजिल पर पहुंच जाता है।