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गुरु और शिष्य का संबंध

जो गुरु के बारे में मनुष्य बुद्घि रखता है उसके साधन-भजन का क्या फल होगा? गुरु के बारे में मनुष्य बोध नहीं रखना चाहिए। इष्टï दर्शन होने के पहले शिष्य को प्रथम गुरु के दर्शन होते हैं। फिर ये गुरु ही शिष्य को इष्टïदेव के दर्शन करा देते हैं, तथा स्वयं धीरे-धीरे इष्टïदेव में विलीन हो जाते हैं। तब शिष्य अपने गुरु तथा इष्टदेव को अभिन्न, एकरूप देखता है। इस अवस्था में शिष्य जो वर मांगता है, गुरु उसे वही देते हैं। यहां तक कि गुरुदेव उसे सर्वोच्च निर्वाण (अद्वैत) की अवस्था तक दे सकते हैं। या अगर शिष्य चाहे तो वह उपास्य-उपासकरूपी भाव-संबंध को बनाये रखकर द्वैत अवस्था में ही रह सकता है। वह जैसा चाहे गुरु उसके लिए वैसा ही कर देते हैं।

मनुष्य गुरु कान में मंत्र फूंकते हैं, परंतु सद्ïगुरु प्राणों में मंत्र जगा देते हैं।  गुरु मानो मध्यस्थ हैं। जैसे मध्यस्थ, प्रेमी को प्रेमिका के साथ मिला देता है, वैसे ही गुरु भी साधक को इष्टï के साथ मिला देते हैं।

समुद्र में एक प्रकार की सीपी होती है, जो स्वाति नक्षत्र के वर्षा की एक बूंद के लिए सदा मुंह बाये पानी पर तैरती रहती है। किंतु स्वाति की वर्षा का एक बिंदु जल मुंह में पड़ते ही वह मुंह बंद कर सीधे समुद्र की गहरी सतह में डूब जाती है, तथा वहां उस जल-बिंदु से मोती तैयार करती है। इसी तरह यथार्थ मुमुक्ष-साधक भी सद्ïगुरु की खोज में व्याकुल होकर इधर-उधर भटकता रहता है, परंतु एक बार सद्ïगुरु के निकट मात्र आ जाने के बाद, वह साधना के अगाध जल में डूब जाता है तथा अन्य किसी ओर ध्यान न देते हुए, सिद्घि लाभ होने तक साधना में लगा रहता है।

ऐसे गुरु यदि पंडित या शास्त्रज्ञ न भी हों तो घबराने का कारण नहीं। उन्होंने किताबी विद्या भले न सीखी हो पर उनमें यथार्थ ज्ञान की कभी कमी नहीं होती। पुस्तक पढक़र भला क्या ज्ञान होगा? ऐसे व्यक्ति के निकट ईश्वरीय ज्ञान का अनंत भंडार होता है।