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मेरा दर्द: दाती महाराज

नमो नारायण,

पता नहीं आज कुछ दिल की बात करने का आपसे मन हुआ। और मैंने कलम उठाई। और जो हकीकत थी, जो मेरा अनुभव था उसे लेखनी के माध्यम से आपके सामने रखने जा रहा हूं। मित्रो, संभव है कुछ बातें आपको अच्छी नहीं लगेगी। क्षमा करना, पिछले कई वर्षों में यही सत्य नजर आ रहा है। इसलिए इस बात को आपके सामने रखना पड़ रहा है।

एक बार मुझसे मिलने के लिए वृद्ध माता-पिता आये। वें बहुत ही परेशान थे। अपनी संतान के विरह में आंखों से उनके आंसू छलक रहे थे। मुझ से वे कुछ कहना चाहते थे, अपनी समस्याओं को मेरे सामने रखना चाहते थे। परंतु उनका बार-बार गला भरा जा रहा था। इसलिए वे मुझ से अपनी पीड़ा कह नहीं पा रहे थे। कहते-कहते फिर रुक जाते थे। मैंने प्रेम से उन्हें अपने पास बिठाया। दोनों को जल पिलाया। थोड़ी देर रुके और कहने लगे कि क्या यही जीवन हैं? जिनको सुखी करने के लिए मैंने अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया, जिनको बड़ा करने में मैंने अपने पास कुछ भी नहीं बचाया। न मैंने रात देखी, न मैंने दिन देखा। बस उनके लिए सुविधा जुटाने में दिन रात लगा रहा। इतना सब कुछ करने के बावजूद भी क्या पाया मैंने इस जीवन में? आपसे कुछ पूछने का दिल कर रहा है। क्या यही जीवन हैं? क्या यही जीवन का अर्थ हैं? क्षमा करें, आप बुरा नहीं मानें। जीवन में भटक गया हूं, राह दिख नहीं रही है, समझ में कुछ नहीं आ रहा है, चारों ओर अंधेरा हैं। जिनको हमने सूखे में सुलाया और हम खुद गीले में सोएं। उन्हें भोजन कराया और हम भूखे सोए। आज उन्होंने ही हमें घर से बाहर निकाल दिया है। उन्होंने हमें कह दिया है कि हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है। जिन्हें हम ने अपनी अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया, आज उन्होंने अपनी अंगुलियां हमसे खींच ली। शब्दों में इतना दर्द, इतनी पीड़ा थी कि मैं खुद अपने आप को संभाल नहीं पा रहा था। मेरा मन किया कि मैं इस संसार में सबका मित्र बनकर, सबकी संतान बनकर उन सभी को गले लगा लूं जिन्हें इन दुनिया वालों ने ठुकरा दिया। और मैंने यह कदम बढ़ा दिया। श्री सिद्धशक्ति पीठ शनिधाम नाम से छोटा सा घरौंदा बनाया जिसमें हम सभी लोग रह रहे हैं। हजारों ऐसे परिवार हैं जिनसे दिन रात मैं जुड़ा रहता हूं। मैं यह तो नहीं कह रहा हूं कि मैंने उन सबको वह लौटा दिया है जो उन्होंने खो दिया। लेकिन एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूं कि उनके चेहरे पर खुशियां ला सकूं।

मैं राष्ट्र के उन सभी सुशिक्षित नौजवानों भाई-बहनों से एक बात कहना चाहता हूं कि क्या यह बात ठीक हैं कि जिनकी अंगुली हम पकड़कर चलना सीखे, आज उन्हें अपनी अंगुली पकड़वाने में हमें शर्म आए? जिनकी गोद में खेलकर आज हम बडे हुए हैं, उनके पास बैठने में हमें शर्म आती है। यह कहां की शिक्षा है? यह कहां का बड़प्पन है? यह कहां की महानता है, जो हमें अपनों से दूर कर दें। अरे, वह भाग्यशाली जीव होता है जिन्हें अपने मां-बाप का आशीर्वाद

प्राप्त होता है। वह बहुत ही सुखी जीव होता है जिन्हें मां-बाप की दुआएं मिलती हैं। इसीलिए मां-बाप की उपेक्षा मत करो। मां-बाप तो अद्भुत अनुभव से भरा हुआ ग्रंथ हैं। उनके चेहरों की झुर्रियों पर हजारों-हजारों अनुभव लिखें है। मेरा विश्वास करो यह अनुभव किसी कॉलेज, यूनिवर्सिटी में पढ़ने से आपको नहीं मिलेंगे। पढ़ सको तो पढ़ लेना क्योंकि यह वह पढ़ाई होगी जिसके आगे बड़े-बड़े कॉलेज, यूनिवर्सिटी की डिग्रियां फेल होती नजर आएंगी, बौनी नजर आएंगी, खोखली नजर आएंगी, नीरस नजर आएंगी। उन डिग्रियों में, जीवन का अनुभव नहीं होगा, मात्र खोखलें शब्द होंगे। इन डिग्रियाें से आपको सुविधा तो मिल जाएगी लेकिन सुख नहीं मिलेगा। क्योंकि जिन्होंने अपने संपूर्ण सुख को त्यागकर आपको सुखी बनाया, आज वे दुखी हैं। और यह कैसे हो गया कि कदम बढ़ाया तो सुख के लिए और दुख का दामन पकड़ लिया? उन्होंने  तो संपूर्ण जीवन आपके लिए न्यौछावर कर दिया कि उनका भविष्य सुरक्षित हो रहा है पर आज वे खुद असुरक्षित हो गये हैं। यह तो निर्दोष को सजा मिल गयी है। यह तो ऐसा हो गया है कि जीवन भर की पूंजी एक पल में नष्ट हो गयी हैं। यह तो ठीक उसी तरह हो गया है जैसे खेत बोया, मेहनत की फसल उगी और जब फसल पक कर तैयार हुई तो पता चला कि फसल ही खराब हो गई। समझो, मेरे मित्रो, यदि यही आपके साथ होगा तो कैसा लगेगा?

मैंने बुजुर्गों से एक कहानी सुनी है जो यहां सुनाना जरूरी समझ रहा हूं।

एक व्यक्ति को उनके मां-बाप ने बहुत पढ़ालिखाकर अफसर बनाया। मां-बाप वृद्ध हो गये। और वह व्यक्ति बहुत बड़ा अफसर हो गया। जिले का मालिक हो गया। अब रहने के लिए सरकारी मकान मिल गया और मां-बाप को नौकरों के मकान में रख दिया। जिस तरह नौकरों को रखा जाता है- वैसे ही उनको रख दिया। उनकी भी संतानें हुईं। संतानों को दादा-दादी से बहुत प्यार था। वह हमेशा दादा-दादी के साथ ही रहते थे। कहानी बहुत लंबी है। मैं उसे बहुत संक्षिप्त में बताना चाहता हूं। पोता स्कूल गया हुआ था और दादा-दादी का देहांत हो गया था। उनको दोनों को श्मशान घाट लेकर गये तो पीछे से जब पोता स्कूल से आया तो देखा दादा-दादी नहीं हैं। तो नौकरों से पूछा तो पता चला कि उनका तो देहांत हो गया है। पोते ने दादा-दादी का पुराना सामान बरतन गिलास, कटोरी, थाली, रजाई, गद्दा आदि सामान समेट कर अपने शयनकक्ष में लाकर रख दिया। बेटा और बहू को जब सारे संस्कार निपट गये तो उस कमरे को किसी और नौकर को देना था। और सामान भी देखना था कि सामान कहां है। पोता साथ में था कमरा खोला तो कुछ सामान नहीं है। नौकरों से पूछा तो बरतन, थाली, गद्दा, रजाई कहां है? नौकर जवाब नहीं दे पाएं। बेटा साथ में था। वे तुरंत बोला- पिताजी मैंने सारा सामान संभाल कर रखा है। पिता ने पूछा- कहां रखा हैं? क्यों रखा है? बेटा बोला- बाद में यह सामान आपके काम आएगा। मुझे खरीदना नहीं पड़ेगा।

कहना यह चाहता हूं कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होए। जो आपने बोया वह पेड़ आपके सामने खड़ा है। समझो मेरी बात को, कद्र करो अपने माता-पिता की। बुढ़ापे में मां-बाप की उपेक्षा मत करो। उनका आशीर्वाद आपके जीवन में सदा बहार लाएंगा। और फिर यह सुंदर देह, जवानी, यह तामझाम कब तक संभाल कर रखोगे आप? एक दिन आपको भी बूढ़ा होना है। जिन मां-बाप को आप वृद्धाश्रम में छोड़कर आ रहे हैं कहीं तुम्हें भी अपना अंतिम दम वहां नहीं छोड़ना पड़ें, इस बात का ध्यान रखना। ऐसा इसीलिए क्योंकि जो आप अपने मां-बापों के लिए करते हैं, वही आपकी संतान आपके साथ करने के लिए तैयार रहेगी।

जिन मां-बाप को तुम अकेले अपने घर में छोड़ कर या वृद्धाश्रम में डालकर इस जवानी पर गरूर कर रहे हो तो एक बात कहना चाहता हूं कि आपने मां-बाप को वृद्धाश्रम में नहीं डाला बल्कि अपनी जड़ों को वृद्धाश्रम में रोप कर आ रहे हो। मां-बाप तो हमारे जीवन की जड़ हैं। जड़ को यदि हमने वृद्धाश्रम में रोप दी तो इस जीवन के वृक्ष का अंत भी वहीं होगा जहां इस वृक्ष की जड़ें हैं।

मेरे मित्रो, मां-बाप हमारी जड़ हैं। हम उसके तने हैं। हमारी औलाद टहनियां हैं। और यह क्यों भूल जाते हो कि टहनियां तने को वहीं झुकायेगी जहां पर जड़े हैं। मैं कहना यह चाहता हूं कि बूढ़े मां-बाप को वृद्धाश्रम भेजते समय यह मत भूल जाना कि आपको भी वृद्धाश्रम अवश्य जाना होगा।

इसलिए हे राष्ट्र के नौजवानो, हे मेरे मित्रो, जब इस धरा धाम पर पहली बार जहां आपने अपनी श्वास ली थी, तो वह मां-बाप की गोद थी। तो क्या मां-बाप की अंतिम श्वास तुम्हारी गोद में नहीं होनी चाहिए। एक बात और याद रखना, बिना मां-बाप का घर खुशहाल नहीं रहता। घर में मां-बाप जहां सुखी नहीं रहते हैं, वह घर हमेशा दुखों से भरा रहता है, कष्टों से भरा रहता है, पीड़ा से भरा रहता है। मैं तो यही कहूंगा कि जिस घर में मां-बाप नहीं वह घर नहीं है, वह तो मात्र ईंट और पत्थरों का खंडहर है जो ढह जाएगा। जैसे किसी मंदिर में मूर्ति नहीं हो तो उस मंदिर में कोई नहीं जाता है। ऐसे ही जिस घर में मां-बाप नहीं हो, उस घर में कोई नहीं जाता है। घर तो वह है जहां एक दिल दूसरे दिल से जुड़ता है। जहां रिश्तों का सुंदर वट वृक्ष हैं। मकान बनाना बहुत आसान है लेकिन घर बनाना बहुत कठिन हैं।

आज हमारे देश में बहुत ऊंचे-ऊंचे महल और बंगले बनाएं जा रहे हैं। ईंट पत्थर का मकान बनाने की होड़ तो लगी हुई है, लेकिन घर उजड़ते जा रहे हैं। और किसी ने कहा है कि

पत्थर के सब मकान बनाने लगे हैं लोग,

दिल के मकान किंतु गिराने लगे हैं लोग।

रखते हैं अपने बच्चों से जो सुख की कामना,

बूढ़ों को मगर रोज रुलाने लगे हैं लोग॥

सोचो न क्या हो गया है हमको। यह वह भारत है जहां रिश्तों का सुंदर वट वृक्ष था। कहां से यह पश्चिमी सभ्यता हावी हो गई।       वहां नहीं थे रिश्ते। लेकिन यहां संपूर्ण रिश्तों का वट वृक्ष था। उनको क्यों दोष दें, स्वीकार तो हम कर रहे हैं उस सभ्यता को। उनका क्या दोष हैं? आज हमारी नजर मां-बाप पर नहीं, उनकी दौलत पर रहती है। आज दो भाई दौलत को लेकर मां-बाप को कटघरे में खड़ा कर देते हैं।  कोई इसके लिए नहीं लड़ रहा है कि मां-बाप को मैं अपने पास रखूंगा। बल्कि इस लिए लड़ रहा है कि उनकी दौलत उनके पास रहे। आज की यह संतान मां-बाप से दौलत तो चहाती है लेकिन मां-बाप नहीं। आश्चर्य है, जिस भारत के प्राचीन शास्त्रों में देवताओं से ऊपर मां-बाप को माना गया है। उस भारत में आज मां-बाप को तो रुलाया जाता है, क्या देवता उस व्यक्ति का प्रसाद ग्रहण करेंगे जो अपने मां-बाप का सत्कार नहीं करते हैं। मैं तो यही कहता हूं कि जो अपने मां-बाप की सेवा करता है उसका प्रसाद देवता भी ग्रहण नहीं करेंगे। जो मां-बाप का नहीं है वो जीवन में किसी का भी नहीं हो सकता है। जो मां-बाप का आदर नहीं करते हैं उनका देवता भी पूजा स्वीकार नहीं करते हैं।

एक बात याद रखना- आपकी सेवा, पूजा, जप-तप, साधना, तीर्थ, पुण्य सारे सत्कर्म समाप्त हो जाएंगे जिस दिन आपने अपने मां-बाप की आंखों में आसूं ला दिया। उनके आंसुओं में सारे सत्कर्म बह जाएंगे। अरे नादानो,  हे मंदिर में दीप जलाने वालो, जिन मां-बापों ने तुम्हें रोशनी दी है, उन आंखों में अंधेरा मत करो। जिन्होंने तुम्हें गोद दी है उन्हें गाली कैसे दे सकते हो? जिन्होंने तुम्हें बोलना सिखाया है, उसे बुढ़ापे में चुप कहने में शर्म करो। भगवान शनिदेव का कलश में तेल भरकर तेलाभिषेक करने वालो, एक गिलास पानी प्रेम से अपने मां-बाप को तो पिलाकर देखो। संपूर्ण अभिषेक हो जाएगा। नहीं तो यह सारा अभिषेक व्यर्थ जाएगा। तुम्हारे द्वारा किया गया यह अभिषेक अभिशापित होगा। और यह अभिषेक तुम्हारे जीवन को नरक बना देगा। इसीलिए समय है जागो। शनिदेव के संदेश को अपने जीवन में उतारो। शनिदेव को अपने जीवन में उतारने के तीन सूत्र हैं।

1. मां-बाप की सेवा करो।

2. पति-पत्नी धर्मानुकूल आचरण करो।

3. राष्ट्र के प्रति प्रेम रखो।

यदि इतना तुम कर लेते हो तो तुम्हारा जीवन खुशियों से भर जाएगा। लेकिन यह हो कहां रहा है। अपनी संपूर्ण जीवन की संपदा का मालिक वे मां-बाप हैं जो अपनी संपूर्ण संपदा आपको सौंप कर आज बेबसी के आंसू बहा रहे हैं, फटे हुए कपड़ों में, टूटी हुई खटिया में तड़प रहे हैं। और यह तड़प आपको कहीं का नहीं छोड़ेगी, याद रखना।

अपनी लेखनी को विराम देने जा रहा हूं लेकिन जाते-जाते उन देश के कर्णधारों और देश के कानून बनाने वालों से प्रार्थना करना चाहता हूं कि ऐसा कुछ कानून बना दीजिए जिससे मां-बाप सुरक्षित हो जाएं। और आपके इस कानून में फेरबदल तो होना चाहिए। यह कैसा कानून है कि जो मां-बाप की दौलत पर तो बच्चों का हक मानता है। परंतु बच्चों की दौलत पर मां-बाप का हक नहीं मानता है ऐसा क्यों?  क्यों नहीं, मां-बाप को बच्चों की दौलत मिलनी चाहिए। जो ऐसा नहीं कर रहा है, उसे कानूनी दंड मिलना चाहिए। कई बार मैं देखता हूं तो बड़ा दु:ख होता है, जब यह देखता हूं कि मां-बाप तो बच्चों के साथ रहते हैं परंतु वैसे नहीं, जैसे बच्चे मां-बाप के साथ रहते हैं। यह घोर अपराध है, अत्याचार है, धर्म के खिलाफ है, संपूर्ण मर्यादाओं के खिलाफ हैं। अब भी समय है, जागो।

तब पछताय होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।

यह तो सामाजिक स्तर पर तथ्य था जो मैंने आपके सामने अपने हृदय के भाव रखें। और यह अंतिम सत्य भी है। फकीर होने के नाते, इस राष्ट्र का सेवक होने के नाते, मैं आत्मा जाग्रति के तथ्य पर कहता हूं कि - हम जीवन में एक भूल कर रहे है। और इस भूल की हमें कभी कोई माफी नहीं मिलेगी।

हमारा संबध बस सुख सुविधा तक है, हम अपने स्वार्थ के लिए संबध बनाते हैं। प्रेम तो है ही नहीं। जिस पुत्र ने माता-पिता को ठुकरा दिया, वह तैयार रहे कि उसका भी पुत्र उसके साथ यही व्यवहार करेगा। इस अवस्था से सबको एक बार गुजरना है। हमने कभी प्रेम किया ही नहीं। संबध बनाते हैं अपने सुख के लिए कि भविष्य में हमें सुख मिलेगा।

एक घर में मैं मेहमान बनकर गया। घर का स्वामी मुझसे शिकायत करने लगा कि मैंने अपने बेटे से इतना प्रेम किया और मेरा बेटा मुझे  देखता ही नहीं है। मैंने कहा कि यदि वह तुम्हें देखेगा तो उसकी तरफ कौन देखेगा? मैं तुमसे पूछता हूं कि यदि उसने तुम्हें प्रेम नहीं किया , क्या तुमने अपने बाप से प्रेम किया? तुम्हारे बाप भी यही शिकायत करते हुए मरे होंगे। उस घर का स्वामी बोला, आपको कैसे पता चला? पता चलने की कोई बात नहीं है, सीधा गणित है।

प्रेम तो आगे की तरफ जा रहा है। क्योंकि यह जिसको हम प्रेम कहते हैं, केवल बायोलाजिकल है। यह केवल जीवशास्त्रीय है और जीवन आगे की तरफ जा रहा है। बाप को तो बचना नहीं है, बेटों को बचना है। जीवन की फिक्र बूढ़ों को बचाने की नहीं, बच्चों को बचाने की नहीं। तब बाप की तरफ प्रेम डालना फिजूल है। सूखे वृक्ष पर पानी डालने से क्या लाभ? वह अंकुरित होने से रहा। जीवन तो इक नोमिकल है न्यूनतम से अधिकतम लेने का प्रयास करता है। फिजूल तो कुछ देना ही नहीं चाहता। बाप का बेटे की तरफ प्रेम होता है। परंतु बेटे का बाप की तरफ कर्तव्य होता है। वहर् कत्तव्य निभा ले, उतना काफी है। उतना भी काफी है। प्रेम तो हो नहीं सकता। दुश्मनी न हो, यह भी बहुत है। घृणा न हो, यह भी बहुत है।

जीवन एक गणित हो गया है, जीवन इकनोमिकल हो गया है। अपना लाभ हानि ही सोचता है। सच्चा प्रेम की तालाश करेंगें तो नहीं मिलेगा। प्रेम इस जीवन के तथ्यों से परे है। इस जीवन के विपरीत है। प्रेम त्याग है। सबको अपने जीवन से प्रेम होता है कि  यह चलता रहे, जीव किसी भी स्थिति में अपना सुख नहीं खोना चाहता परंतु जीवन जिसने दिया, जो जीवन में सहयोगी बनें, उन्हें याद करना समय की बर्बादी समझते हैं। जीव न तो आगे बढ़ता जा रहा है, समय के साथ। प्रेम बहुत अलग विषय है। प्रेम में सबसे आलोचना झेलनी पड़ती है, वह तो हृदय की बात है। आज का कल जीवन तो एक सौदा बन गया है पर प्रेम में कोई सौदा नहीं होता। यदि मेरी बात आपको अच्छी लगी तो इसे जीवन में जरूर उतारना। और मेरी बात अच्छी नहीं लगे तो छोटा भाई समझ कर माफ कर देना। लेखनी को विराम नहीं दे पाया क्योंकि विषय ऐसा था कि अपने आपको रोक नहीं पाया। बस अब इतना ही।