मनुष्य का परम कत्र्तव्य क्या है? मित्रो, मनुष्य का परम कत्र्तव्य है ऐसा कर्म करना जो समाज के अनुरूप हो एवं मन तथा आत्मा को उन्नत बनाये। जिस कर्म से समाज की मर्यादा टूटे, मन और आत्मा का ह्रïास हो वह कर्म पापकर्म है। जिस कर्म से जन, देश व आत्मा का कल्याण हो वह सत्कर्म है। सत्कर्म में मनुष्य को संलग्न होना चाहिए। सत्कर्म ही मनुष्य का कत्र्तव्य है। सत्कर्म से अंत:करण शुद्घ होता है सभी प्रकार के विकार दूर होते है। परंतु यदि कत्र्तव्य की सीमाएं बांध दे तो कभी कभी कत्र्तव्य मार्ग इतना मधुर नहीं होता। इसलिए कत्र्तव्य चक्र को मधुर बनाने के लिए उसके पहियों पर प्रेम और दया का तेल लगाना न भूलें। यदि प्रेम, उदारता और दया का भाव आयेगा तो कत्र्तव्य के मार्ग पर आने वाली सभी बाधाएं कट जायेंगी। कोई भी कार्य जब दृढ़ आसक्ति से किया जाता है तो वह कत्र्तव्य बन जाता है। कत्र्तव्य में आसक्ति का आवेग होता है। जिस प्रकार भारतीय संस्कृति कहती है कि पति पत्नी क ो विवाह के बाद धर्मानुकूल आचरण रखना चाहिए। अपने जीवनसाथी के प्रति ईमानदार रहना चाहिए। संबंध में झूठ, छल व कपट नहीं होना चाहिए। विवाह को प्रेम का सघन संबंध बनायें तो उस संबंध को पूर्णता से निभाने का कर्म कत्र्तव्य रूप में परिणत हो जाता है। उसी आसक्ति के आवेग के कारण पति पत्नी जीवन पर्यन्त एक साथ रहते है। किसी भी कार्य को निष्ठïापूर्ण करना कत्र्तव्य कहलाता है। मनुष्य का परम कत्र्तव्य है सत्मार्ग पर चलें। झूठ व अनैतिकता से बचें। आपका मानसिक और नैतिक दृष्टिïकोण आपके व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करता है। अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण करना मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए। अच्छे व्यक्तित्व का व्यक्ति समाज में उच्च पद को प्राप्त होता है। जिस समाज में हम रहते है उसके आदर्शों का पालन करना मनुष्य का कत्र्तव्य है। प्रकृति ने जब हमें जहां भी जिस स्वरूप में, जिस परिस्थितियों में जन्म दिया उसके साथ-साथ दूसरों के साथ ताल-मेल बिठाने के लिए कुछ कत्र्तव्य विधान किये है। हमें उन कत्र्तव्यों का विरोध नहीं करना चाहिए। जैसे प्रकृति ने माता पिता के लिए अपनी संतान के प्रति कुछ कत्र्तव्य विधान कियें है। एक शिक्षक का अपने शिष्य के प्रति, एक नेता का अपने राष्टï्र के प्रति इत्यादि इत्यादि। हमारा परम कत्र्तव्य है प्रकृति के द्वारा विधान किये गये कत्र्तव्यों का निष्ठïापूर्ण पालन करें उनसे चूकें नहीं। कार्य चाहे छोटा हो या बड़ा। मनुष्य की उच्चता और नीचता का अनुमान उसके कार्य के स्तर से न लगायें बल्कि इसे महत्व दें कि वह अपना कर्म किस भाव से करता है। यदि मकान में ऊंची रखी ईंट उपयोगी है तो नीचे रखी ईंट भी उपयोगी है। यदि सभी ईंटे ऊंची रख दी जायेंगी तो मकान खड़ा नहीं हो पायेगा। इसलिए कोई भी किया गया कार्य ऊंचा हो या नीचा नहीं होता। प्रत्येक कार्य उपयोगी होता है। श्वड्डष्द्ध 2शह्म्द्म द्बह्य द्गह्नह्वड्डद्यद्य4 द्बद्वश्चशह्म्ह्लड्डठ्ठह्ल! यदि सभी ऊंच वर्ग के कार्य करेंगे, तो प्रकृति के स्वस्थ चक्र में रूकावट आ जायेगी। वास्तव में, कार्यों को छोटे और बड़े वर्ग में विभाजित करना ही एक गलत दृष्टिïकोण है। कर्म जो भी करें पर सही व सत्यपूर्ण दृष्टिïकोण से करें। किसी भी व्यक्ति का अंाकलन उसके द्वारा संपादित किये गये कार्य से नहीं करें बल्कि उसक ा उस कार्य के प्रति भाव और संपर्ण देखें। मनुष्य के अपने कार्य के प्रति भाव उसकी आत्मा को व उसके व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करते है। इसलिए कार्य जो भी करें पर उसे कत्र्तव्यबद्घ होकर करें तो स्वत: ही उच्च श्रेणी का हो जाता है। छोटा कार्य भी नियमितता से किया गया है, आदर्शों के अनुकूल किया गया है, सबके हित में किया गया है तो वह भी उच्च हो जाता है। यदि अच्छा कार्य भी आदर्शो के उल्लघंन करके किया जाये, नियमों को तोडक़र किया जाये तो निम्र श्रेणी का हो जाता है। इसलिए मनुष्य का परम कत्र्तव्य है कोई भी कार्य करें उसे पूर्णता से करेें। पूर्ण कार्य वही है जो आदर्शबद्घ है, नियमित है, श्रद्घापूर्ण है, प्रेमपूर्ण है, हितपूर्ण है। पूर्ण कार्य ही सत्कर्म बन जाता है। पूर्णता से किये गये कार्य में सात्विकता आ ही जाती है। सात्विक कर्म का लक्षण ही प्रेम, निष्ठïा और संपर्ण है। यदि किसी भी कार्य को आसक्त होकर नहीं किया तो वह न क$त्र्तव्य में परिणत होता है न पूर्णता में। कत्र्तव्य की बात हो रही है तो एक और बात की चर्चा करना बहुत अनिवार्य है कि कत्र्तव्य ईश्वर के द्वारा विधान किये गये है आपके समीप के सभी व्यक्ति भी आप ही के समान ईश्वर द्वारा विधान किये गये कत्र्तव्यों का पालन कर रहें है। इसलिए किसी की निंदा न करें, किसी से ईष्र्या न करें, किसी को हानि पहुंचाने की चेष्टïा न करें। यह केवल प्रत्येक संन्यासी का ही नहीं वरन्ï सभी नर व नारियों का कत्र्तव्य है। प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान करना आपके क त्र्तव्य को पूजा बना देता है। जब कत्र्तव्य पूजा बन जाता है तो वह आत्म जागरण हो जाता है, वही परम कल्याण का मार्ग है। जिस कार्य से किसी का अहित न हो तो वह कार्य ईश्वर की ओर बढ़ाता है। जो कार्य ईश्वर की ओर मोड़े वह सत्कर्म बन जाता है। नेक कार्यों में संलग्न होना मनुष्य का परम कत्र्तव्य है। नेक सोच, नेक विचार ही मन को नेक कार्यों की ओर प्रेरित करते है। नेक सोच, नेक विचार पैदा होते है संतों की शरण लेने से , सत्संग सुनने से, नि:स्वार्थ सेवा करने से। मनुष्य जन्म तो ले लेता है पर उसे स्वबोध नहीं होता, वह अपने कत्र्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं होता। इससे बड़ा मनुष्य का दुर्भाग्य कोई नहीं है। जो व्यक्ति अपने कत्र्तव्यों के प्रति जागरूक है, उनका निष्ठïापूर्ण पालन करता है वही ईश्वर की पूजा है। अपने कत्र्तव्यों का उल्लंघन करना ईश्वर का अपमान है। अब यह प्रश्न उठता है कि कार्य में जागरूकता, निष्ठïा व प्रेम कैसे लाया जाये?जब आप पूर्ण रूप से स्वाधीन होंगें तो कार्य में रूचि पैदा होगी, कार्य के प्रति प्रेम आयेगा, कार्य क त्र्तव्य में परिणत हो जायेगा। यदि आप दास होकर कार्य करेंगें तो कार्य के प्रति रूझान कम हो जायेगा। जिस भी कार्य में स्वार्थ, लालच आ जाता है वह कार्य दास कार्य बन जाता है क्योंकि उसमें आत्मा की उन्नति नहीं होती। आत्मा की उन्नति होती है ईश्वरीय गुणों का विकास होने से। सर्वप्रथम ईश्वरीय गुण है आप सबका भला करें। जो सबका भला करता है ईश्वर उसका भला करता है। ईश्वरीय गुणों का विकास आत्मा में आनंद की अनुभूति कराते है। नि:स्वार्थ व बिना किसी लालच के भाव से किया गया कार्य स्वाधीनता के पंख लगा देता है। मनुष्य आनंद की ऊंचाईयां छूने लगता है। जिस कार्य में स्वार्थ आ जाये, लालच आ जाये वहंा पराधीनता की बेडिय़ा डल जाती है। वहां आनंद की ऊंचाईयों तक पहुंचना संभव नहीं है। जिस कार्य में समानता का भाव न आये वहां प्रेम पैदा हो ही नहीं सकता। स्वार्थ जीवन का सबसे बड़ा विकार है जो आत्मा के विकास और उन्नति में बाधक है। इसलिए निष्पक्ष एवं नि:स्वार्थ भाव से कार्य करें तो प्रेम बरसेगा। जहां प्रेम बरसता है वही आत्मा उ$त्तम है, वहीं ईश्वर का निवास है। जहां ईश्वर का निवास है वहां परमसुख ही परमसुख है। जो कार्य केवल उच्च पद, नाम और यश के लिए किया जाये वह भी कभी आनंद की अनुभूति कराने में सहयोगी नहीं है। जो कर्म नाम व यश के लिए किये जाते है वहां तनाव, निष्कारण भय, ईष्र्या, छल व कपट का विकास होना शुरु हो जाता है। ये सब दुर्गुण है और ईश्वर से दूरियों को बढ़ा देते है। दु:खों को जन्म देते है। स्मरण रहे, समस्त कर्मों का उद्ïदेश्य मन के भीतर स्थित शक्ति को प्रकट व आत्मा को जाग्रत करना होना चाहिए। इसके साथ ही मनुष्य का कत्र्तव्य बनता है कि कर्म को करता चला जाये बिना किसी फल की इच्छा के, बिना कोई आशा किये। जगत में नाम प्राप्ति की चेष्टïा करना व्यर्थ है जो जगत आज मान दे रहा है वही कल अपमानित भी कर सकता है। समाज का समर्थन मिल जाये तो मूर्ख भी बहादुर हो जाता है और समाज का समर्थन न मिलें तो बुद्घिशील और विद्वान भी मूर्ख हो जाता है। इसलिए जगत तो मिथ्या है। मिथ्या में भ्रमित हो राह नहीं भूलनी है। अपने आस पास के लोगो से मिली प्रशंसा या निंदा की बिना परवाह किये अपने कत्र्तव्यों का पालन करते हुए कर्मों को संपादित करते जायें। समाज में यश मिले या अपयश, आप एक समान रहे, न चिंतित हो, न व्यथित हो, न प्रसन्न हो। जो मनुष्य बिना मान अपमान की ङ्क्षचता करते हुए अपने कर्मों को संपादित करता चला जाता है वह त्याग की मूर्ति है, वह संत चरित्र का परिचय है। संत होने के लिए संसार को त्यागना जरूरी नहीं है। जो नि:स्वार्थ होकर, बिना अहं से कार्य करता चला जाता है वही संत है। जो कर्म को याग बना दे, पूजा बना दे, भोग से मुक्त हो जाये वही संत है। जो कर्म भोग विलासिता से पूर्ण है वह दुष्कर्म है। जो कर्म आप अपनी आत्मा, अपने देश और जन कल्याण के लिए करते है वही सत्कर्म कर्म है। कर्मयोग के इस नियम का जो पालन करता है वही सच्चा संत है। जहां भोग नहीं है वहीं आत्म शक्ति का विकास होता है, वहीं आत्म जागरूकता पैदा होती है। मनुष्य का परम लक्ष्य ही यही है कि वह अपने सम्मुख ईश्वर प्राप्ति का ध्येय रखे। ईश्वर का मार्ग ही कल्याण का मार्ग है। जरूरी नहीं कि तपस्या करके, संसार त्याग कर आप ईश्वर को प्राप्त कर सकते है। पुण्य कर्म करके भी आप ईश्वर मार्ग में संलग्न हो सकते है। कर्म कभी नष्टï नहीं होता। कर्मो के फल भोगने के लिए ही मनुष्य संसार में बार बार जन्म लेता है और मरता है। पर यदि आप अपने कर्मों को नि:स्वार्थ भाव से संपादित करें तो जन्म मरण के चक्रव्यूह से मुक्ति पा सकते है। इसी में मनुष्य का परम कल्याण निहित है। कर्म आत्म शक्ति की अभिव्यक्ति होता है। बिना विचार और चिंतन के कर्म संपादित नहीं होता। इसलिए आत्म शक्ति का जागरण करना आवश्यक है। जागरण होगा जब आदर्श जुड़ेंगे, नेक सोच व विचार उत्पन्न होंगें तभी मन सत्कर्मों के लिए प्ररित होगा। आत्म शक्ति के जागरण के लिए विचारों का शुद्घिकरण करना होगा। जीवन की सार्थकता इसी में है मन में सात्विक विचारों का वास रहे, सदा लक्ष्य आदर्शों से जुड़ा रहे। मनुष्य का परम लक्ष्य है आत्म जागरण और ईश्वर को ध्येय बनाते हुए आदर्श को अपनाते हुए, अपने कर्मों को संपादित करें।
मिथ्या है सांसारिक प्रेम मित्रो, प्रेम की चर्चा तो दुनिया में खूब होती है किंतु कुछ लोग इसे अच्छा मानते हैं तो कुछ लोग इसे बुरा। वास्तव में प्रेम तो साक्षात परमात्मा का प्रतिरूप होता है। उसके बारे में कोई चर्चा करना संभव ही नहीं क्योंकि वह वाणी से व्यक्त किया ही नहीं जा सकता है। वह तो स्वयं अनुभव करके ही समझा जा सकता है। यह बात आध्यात्मिक प्रेम और सांसारिक प्रेम दोनों पर लागू होता है। लेकिन एक बात बहुत गौर करने की है कि सच्चा व शाश्वत प्रेम अविनाशी परमात्मा से ही हो सकता है। नाशवान संसार से प्रेम झूठा होता है, क्योंकि वह शाश्वत नहीं, क्षणिक होता है। इसीलिए हमारे प्राचीन मनीषियों ने कई प्रसंगों में घोषित किया है कि सांसारिक प्रेम मिथ्या है। आइए, आज हम इसी विषय पर सर्व प्रथम चर्चा प्रारंभ करते हैं। सांसारिक रिश्तों के बंधन में कैद मनुष्य प्रभु को भूल जाता है। वह समझता है कि संसार में जो प्यार मिल रहा है वह सच्चा है। मेरी पत्नी, मेरे पुत्र, मेरे भाई-बन्धु मुझे वास्तव में प्यार करते हैं, बल्कि यदि मैं न रहूं तो वे मेरे बिना बहुत दुखी हो जाएंगे। लेकिन तथ्य यह है कि संसार के सारे रिश्ते-नाते क्षणभंगुर हैं। अभी हमारा कोई परम मित्र है तो वक्त व परिस्थितियां बदलने के साथ वह हमारा परम शत्रु भी बन सकता है। जो पत्नी मुझे प्राणनाथ कह कर पुकारती है, वही पत्नी मृत्यु के बाद मेरी सूरत देखकर भी डरने लगेगी। प्यारा बेटा मेरे इस पंचभौतिक शरीर को विधि पूर्वक श्मशान में जला देगा। इस संसार में फैली प्रीति के धागे एक झटके में टूट जाते हैं। क्षणभंगुर संसार से जुड़ी हर चीजें क्षणभंगुर हैं। अविनाशी तो एक मात्र परमपिता परमात्मा हैं। इसलिए उसी से की गयी प्रीति अविनाशी होती है। इसी भाव को हमारे सभी मनीषी व महापुरुष सनातन काल से लोगों को समझाते आ रहे हैं। सभी संत-महात्मा सांसारिक रिश्तों को मिथ्या व क्षणभंगुर बताते हुए प्रभु से बार-बार प्रार्थना करते हैं कि आप अपने अविनाशी प्रेम से मुझे कृतार्थ करें। प्रभु, आपसे हमारा मिलन कैसे होगा? हम तो आप की माया से भ्रमित होकर दिखाई देने वाले नाते-रिश्तों से और संसारी पदार्थों से स्नेह कर बैठे हैं और आपकी अविनाशी प्रीति को हमने भुला दिया है। वास्तव में एक न एक दिन इस संसार को छोड़ ही देना है। फिर भी पता नहीं क्यों यह जानते हुए भी मनुष्य क्षणभंगुर सांसारिक ऐश्वर्य की वस्तुओं को एकत्र करता रहता है। संसार की कोई भी वस्तु परलोक में काम नहीं आती, फिर भी उसका जंजाल मनुष्य ने अपने गले में बांध लिया है। सांसारिक धंधों को बहुत फैला रखा है। मृत्यु के बाद ये धंधे किसी काम के नहीं हैं। ये तो इस संसार में ही छूट जाते हैं। इसलिए ऐ मनुष्य, तू केवल प्रभु से प्रीति कर और सांसारिक धंधों में उलझे रहने से कोई लाभ नहीं। कहा है - सुमिरण की सुधि यूं करो, ज्यंू गागर पनिहार। हाले डोले सुर्त में, कहे कबीर विचार॥ कबीर दास ने लोगों को प्रभु से जुडऩे का उपदेश देने के साथ यह चेतावनी भी दी है कि संसार के धंधों को छोडऩे की मूर्खता मत करो। क्योंकि संसार को छोड़ देेने मात्र से ही कल्याण नहीं होने वाला है। कल्याण तो प्रभु के सुमिरण से होना है। यदि घर-गृहस्थी छोड़ देेने के बाद भी प्रभु का सुमिरण नहीं हुआ तो कल्याण नहीं हो सकता है। इसके लिए कबीर साहब एक पनिहारिन का उदाहरण देते हुए कहते कि जिस प्रकार वह अपनी सखियों से बातचीत जारी रखते हुए साथ ही गोद में बच्चा संभाले हुए रहती है फिर भी सिर पर रखे पानी से भरे घड़े को अपनी सुरति से संभाले रहती है, गिरने नहीं देती है। उसी प्रकार संसार का सब काम करो और प्रभु का भजन करो। लगभग सभी संत-महात्माओं ने सांसारिक प्रेम को झूठा कहा है और भगवान की भक्ति को अपने कल्याण का सर्वश्रेष्ठï साधन बताया है। कुछ संतों ने तो प्रभु की चर्चा न सुनने वाले लोगों के कानों की तुलना सांप के बिल से की है। और प्रभु का गुणानुवाद नहीं करने वाले लोगों की जीभ को संतों ने मेढक की जीभ की तरह टर्र-टर्र करने वाला निरर्थक बताया है। इस जीवन के गूढ़ रहस्य को मनुष्य तभी महसूस कर पाता है जब वह साधु-संतों की संगत में बैठकर प्रभु भक्ति की महिमा श्रवण करता है और प्रभु को तत्व से जानने के लिए समय के सद्ïगुरु के शरण में जाकर भक्ति के गूढ़ रहस्य का अनुभव प्राप्त करता है। लेकिन सांसारिक मोह-ममता में फंसा जीव प्रभु की माया में ही खो जाता है। उसे यह याद नहीं रहता कि हमें इस संसार से कूच करना है। काल रूपी नाग मुंह फैलाए जीव के पीछे पड़ा हुआ है। पता नहीं कब यह काल हमें डंस लेगा। इसलिए सावधान हो जाने की जरूरत है। क्योंकि ज्यों ही समय पूरा होगा, वह हमें छोडऩे वाला नहीं है। हमारे देखते ही देखते अनेक लोग काल का कलेवा बन चुके हैं और कुछ बनने वाले हैं। हमें इस गफलत में नहीं रहना चाहिए कि काल का नाग हमें डंसने से छोड़ देगा। याद रहे, जो काल आज दूसरों को अपने गाल में डाल रहा है वह कल हमें भी अपना आहार बनाने से नहीं चूकेगा। बहुत पहले की बात है। अपने आश्रम में एक संत अपने शिष्यों को सत्संग सुनाकर उन्हें भक्ति मार्ग पर अग्रसर होते रहने का उपदेश दिया करते थे। वे अपने एक प्रिय शिष्य को हमेशा समझाया करते थे कि संसार में चेतन भाव से जाग्रत रहो। ये संसारी रिश्ते-नाते अंत समय काम नहीं आते। सच्ची प्रीति केवल भगवान से उत्पन्न करो। यह संसार एक मेले की तरह है, जो एक नियत समय के लिए है। समय पूरा होते ही मेला समाप्त हो जाता है और लोग अपने-अपने घरों को वापस चले जाते हैं। अपने-अपने कर्मों का फल भोगने के लिए हम सभी नाना प्रकार के रिश्ते-नातों के बहाने एक परिवार में एकत्र हुए हैं। आयु पूरा होते ही लोग एक-एक कर काल का कलेवा बन बिछुड़ते जाते हैं। अंत समय कोई साथ नहीं देता। मरने के बाद अपनी करनी ही साथ जाती है। प्रभु जब हमारी नेकीबदी का हिसाब-किताब लेता है वहां हमारी सहायता के लिए कोई भी रिश्ता-नाता सहायक नहीं बनता है। उस संत के इन उपदेशों को सुनकर वह शिष्य बहुत झुंझला गया और गुरु जी से कहने लगा कि आप तो घर-गृहस्थी से विरक्त हैं। आपको तो मालूम ही नहीं कि संसार के रिश्ते-नातों का सुख कैसा होता है। घर-गृहस्थी की आलोचना करने के पहले सांसारिक रिश्तों में बंधकर तो देखो कि वहां जीव को कैसा रस प्राप्त होता है। जितना मेरे माता-पिता, बहन-भाई, पत्नी और बच्चे मुझको चाहते हैं, यदि मैं उनको प्यार न करूं तो बताइए मेरे जैसा पापी कौन होगा? मेरे माता-पिता, भाई-बहन और पत्नी मेरे बिना एक दिन भी नहीं रह सकते। आप जैसे वैरागी लोग नहीं जान सकते कि सांसारिक धर्म का परिपालन करना कितना आवश्यक है। यदि मैं न रहूं तो मेरे बिना पूरा परिवार बर्बाद हो जाएगा। कोई जिंदा नहीं बच पाएगा। मेरे ही कमाई पर सब लोग अवलंबित हैं। उसकी बातों को सुनकर उस संत को बहुत अचंभा हुआ। फिर भी उन्होंने अपने शिष्य की नासमझी पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और उसके कल्याण के लिए एक युक्ति और विधि बताकर उसे घर भेजा। उसे वचनबद्घ करते हुए घर में जाकर एक नाटक खेलने का निर्देश दिया। संत जी की बतायी योजना के अनुसार वह घर गया और घर जाने पर पेट दर्द के बहाने तड़पने लगा। उसने घर वालों को दवाई लाने के लिए कहा और बिस्तर पर लेटकर गुरु की बतायी विधि से प्राणायाम करते हुए अपनी सांसों को रोक लिया। इस बीच दवाई लेकर जब पत्नी घर में लेकर आयी तो उसकी सांस बंद देख उसे मरा समझ डर गयी। सोचा कि यह तो मर गया है, मेरी भूख बर्दाश्त नहीं होगी इसलिए रोने से पहले चोरी-छिपे कुछ खा लूं। उसकी पत्नी को पता था कि हफ्ते-दस दिन भोजन एक ही समय मिलेगा वह भी सादा इसलिए उसकी पत्नी ने आटा में घी और शक्कर मिलाकर भूनकर प्रतिदिन खाने का सामान भी तैयार कर लिया कि कहीं रोते-रोते मैं ही न मर जाऊं। पत्नी की सारी करतूत उसका पति धीमी सांस लेते हुए ही देखता रहा। पत्नी ने जब सारी तैयारी करने और खाने के बाद रोना-धोना शुरू किया तो पति ने फिर अपनी सांसों को रोक लिया। इतने में सब परिवार इक_ïा हो गया। सभी लोग रोने-धोने लगे। माता-पिता सिर पीटने लगे कि बेटे के पहले तो हमें मरना चाहिए था। पत्नी बोली- प्राणनाथ! तेरे बिना मेरा कौन है? मैं भी मर जाती तो अच्छा होता। वह युवक गुरु कृपा से अंदर ही अंदर सारा दृश्य देख रहा था। सारे गांव में हल्ला हो गया कि अमुक युवक मर गया है। यह खबर सुनकर उस युवक के गुरुदेव वह संत भी वहां आ गये और बोले- मैं इसे अकाल मृत्यु से बचा सकता हूं। उन्होंने एक दूध का गिलास मंगवाया और कोई मंत्र पढ़ते हुए दूध में फूंक मारी और बोले- जो यह दूध पी लेगा, वह तो मर जाएगा किंतु यह युवक जीवित हो जाएगा। संत जी की बातों को सुनकर पिता ने दूध पीने से इनकार कर दिया और बोला - दूध पीकर खुद मर जाने से लाभ क्या है, जब मैं इसे जीवित होते हुए देख ही नहीं पाऊंगा। माता ने कहा कि प्रभु की इच्छा को कौन टाल सकता है यह तो एक होनहारी थी। कौन जाने दूध पीकर मैं मर भी जाऊं और यह जीवित न हो। मैं इस चक्कर में नहीं पड़ती। यह तो चला ही गया। यदि मैं मर जाती हूं तो सारा परिवार बिखर जाएगा। पत्नी की बारी आयी तो उसने भी दूध पीकर मरने से इनकार कर दिया। बोली - ये तो मर ही गये, यदि मैं मर जाऊं तो मेरे छोटे-छोटे बच्चों को कौन संभालेगा। यह तो बात ही बड़ी अजीब है। क्या आज तक किसी मरे हुए के लिए मरने से कोई मरा हुआ व्यक्ति जिंदा हुआ है कि जो आज जिंदा होगा। परिवार के लोगों के विचार सुनकर उस संत ने कहा कि कोई बात नहीं। मैं ही दूध पी लेता हूं, यह मेरा प्यार शिष्य था। यह सुनकर घर के लोगों ने कहा कि महात्मा जी मरने-जिलाने का चक्कर छोडि़ए। अब इसे जल्दी से जल्दी श्मशान पहुंचाने की तैयारी की जाए। अचानक लोगों को ध्यान आया कि उस युवक ने जमीन पर लेटते समय बेचैनी में अपने पैरों को मकान की थुम्बी में इस प्रकार अड़ा लिया था कि बिना थुम्बी को कांटे उसका शव बाहर नहीं निकल सकता था। तब गांव के लोग थुम्बी को काटने का जुगाड़ करने लगे। यह देख उस युवक की पत्नी ने एतराज किया कि मेरा पति तो मर ही गया। अब कौन नयी थुम्बी लगाएगा। थुम्बी को क्यों काटते हो, इसके पांव ही काटकर अर्थी निकाल लो। अब तो ये मर ही चुके हैं, टांग काटने पर दर्द नहीं होगा। मेरी थम्मी न काटो क्योंकि मेरी छत गिर सकती है। यदि छत गिर जाएगी तो मुझ विधवा का घर कौन बनवायेगा? इस प्रकार का वार्तालाप हो ही रहा था कि इसी बीच उस संत ने वह दूध स्वयं ही पी लिया। संत जी द्वारा दूध पी लिए जाने पर पूरा परिवार गुरु जी की जय-जयकार करने लगा। मां-बाप बोले - गुरुदेव! आप तो बड़े दयालु हैं जो हमारे बेटे के प्राण बचाने के लिए अपने प्राण दे रहे हैं। दूध पीने के बाद गुरु जी ने शिष्य के सिर की एक खास नस को दबाया और उठने के लिए आदेश दिया। बोले- बेटा! अब फैसला कर लेने का समय आ गया है कि तेरा अपना कौन है जिसके लिए तू इतना प्रेम करता था और कहता था कि मेरे बिना इनका एक दिन भी निर्वाह होना कठिन है? अब तो तुम भली-भांति वाकिफ हो गये हो कि कोई भी तुम पर निर्भर नहीं है और कोई तुम्हें प्यार भी नहीं करता। यह तो तुम्हारा भ्रम है कि परिवार के लोग तुम्हें खूब प्यार करते हैं। इसके बाद उस भक्त ने अपने परिवार का सारा नजारा देखकर अपने परिवार और पत्नी से वैराग्य ले लिया। इस प्रकार झूठ और सच का फैसला हो गया और वह युवक समझ गया कि सांसारिक प्रेम मिथ्या है। सच्चा प्रेम तो अविनाशी परमात्मा से हो सकता है। इसलिए हमारे सभी प्राचीन मनीषी व सच्चे साधु संत यह उपदेश देते हैं कि संसार क्षण-भंगुर है। इससे की गई प्रीति भी क्षणभंगुर होती है। इसलिए इस तथ्य को समझ कर अविनाशी प्रभु से ही प्रेम करना चाहिए। संतजन अपने मन के बहाने सबको समझाते है कि ऐ मन! तेरी आयु तो बीती जा रही है, इसलिए तू घट-घटवासी सत्यस्वरूप राम की भक्ति कर। उस राम की ओर बढ़ो जो अविनाशी हैं, उस राम को पाने की कोशिश करो जिसे पाने के बाद कुछ भी पाने के लिए शेष नहीं रह जाता है। सभी पहुंचे हुए साधु-संत लोगों को यही बात समझाते रहे हैं कि संसार से नहीं, राम से प्रीति कर। वे अन्य लोगों को ही नहीं बल्कि अपने मन को भी संबोधित करते हुए यही बात कहते हैं कि परमात्मा से प्रीति लगाए रहो। क्योंकि संसार का प्रेम कुछ दिन के लिए है और दु:खदायी है, परंतु यह जीव शरीर रूपी मकान में बैठा हुआ इंद्रियों के झरोखों द्वारा बाहर दृष्टिï दौड़ाकर अपना काम बिगाड़ बैठा है। यह जीव जिस अविनाशी परमात्मा का अंश है, उसके उपकार तथा कृपा को भूलकर मिथ्या व क्षणभंगुर पदार्थों से प्रेम कर बैठा है। जिसे एक न एक दिन अवश्य समाप्त होना है। सांसारिक प्रेम मिथ्या है। सच्चा और अविनाशी प्रेम तो परमात्मा से ही हो सकता है।
दीपावली-ज्ञानोत्सव है! दीपों का यह त्योहार अपने साथ काफी विशेषताएं लिये हुए हैं। यह एक राष्टï्रीय स्तर पर मनाया जाने वाला त्योहार हैं। इनके दामन में मानव मात्र के लिए महान संदेश छिपा हुआ है। हम इसके उस विशेषता पर चर्चा करने से पहले इससे संबोधित पौराणिक कथाओं पर भी एक सरसरी निगाह डालते हैं। ऐसी कथा आती है कि रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद प्रभु श्री रामचंद्र जी जब अयोध्या घर में घी के दीपक जलाये गये। पूरी अयोध्या नगरी को दीपों से सजाया गया। लोग नाना तरह से अपनी खुशियों का इजहार कर रहे थे। उन्होंने भगवान राम की आरती उतारी। और सारा नगर श्री राम के जय-जयकार से गूंज उठा। इसके अलावा लोगों ने सीता को दिव्य गुणों से संपन्न और उन्हें लक्ष्मी स्वरूप जानकर उनकी भी पूजा की। आगे चलकर इस अवसर की याद ताजा रखने के लिए हर वर्ष इसे एक उत्सव के रूप में मनाये जाने की परंपरा शुरु हो गयी। कालक्रम से लोगों द्वारा इस दिन अपने घरों को रंग-बिरंगी रोशनी से जगमगाने, लक्ष्मी पूजन करने और आशिबाजियों का सिलसिला प्रारंभ हो गया जो अब भी जारी है। दीपावली पर्व के दिन हर आस्थावान हिन्दु अपने-अपने घरों में सुख-समृद्घि की देवी लक्ष्मी की छोटी-बड़ी प्रतिमा स्थापित कर बड़े भक्ति भाव से पूजा करता है। व्यवसायी समाज तो विशेष रूप से अपने व्यवसाय को सुचारु रूप से चलाने और उससे अधिकाधिक धनोपार्जन करने हेतु धन लक्ष्मी की पूजा किया करते हैं। व्यवसायी इसे अपने व्यवसाय का नया वर्ष (वर्ष का प्रथम दिन) भी मानता है। वह इस प्रयास का लेन-देन बराबर हो। और इसे नये रूप में वह अपने व्यवसाय को पुन: प्रारंभ करें। परंतु इसके साथ ही इस पर्व के अवसर पर कुछ अज्ञानजनित बुराइयां भी प्रचलित हो गयीं जिसके कारण व्यक्ति, समाज और राष्टï्र को दिवाली से बजाय लाभ के नुकसान ही होता है। इस दिन कुछ अश्रद्वालु और नासमझ लोग जुआ, मद्यपान, बड़े-बड़े बम पटाखों का विस्फोट आदि करने की हरकतों से भी बाज नहीं आते। इससे उनका अपना दिवाला तो होता ही है वे समाज की शांति व्यवस्था में भी खलल पैदा करते हैं। हमें इन कुप्रथाओं से बचना चाहिए। ये गलत प्रथाएं दीपावली की गरिमा को धूमिल करती हैं। इनके कारण दीपावली पर्व में निहित दिव्य संदेश, आलोचकों की छींटाकसी के आवरण में छिप जाते हैं। इस पर्व की वास्तविक महिमा, इस पर्व को प्रचलित करने वाले ऋषियों के मर्म को समझने के लिए हमें कुछ मूलभूत बातों पर विचार करना होगा। ताकि सच्चे अर्थों में हम इस पर्व को मना सकें। इस संबंध में पहली बात तो यह है कि यह पर्व कंगालों का नहीं अमीरों का है। केवल धनी लोग ही इस पर्व को मना सकते हैं। जैसा कि संतों ने कहा है कि अगर मनुष्य के पास विवेक नहीं है तो वह धन का सदुपयोग नहीं कर सकता। इसलिए धन प्राप्ति से पहले नहीं तो कम से कम उसके साथ-साथ हमें विवेक की प्राप्ति अवश्य करनी चाहिए। अब प्रश्न उठता है कि वह विवेक कैसे प्राप्त हो? क्या विवेक भौतिक विद्वता या बुद्घिमानी है कि हम उसे अपने बल-बूते से कुछ पठन-पाठन करके या चर्चा करके प्राप्त कर लेंगे? नहीं, इसके लिए तो हमें एक मात्र सत्संग का ही सहारा लेना होगा। क्योंकि जब कभी भी, जहां कहीं भी और जिस किसी को भी विवेक आदि गुणों और महानताओं की प्राप्ति हुई, उसका आधार सत्संग ही रहा है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं- मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जहां जेहिं पाई॥ सो जानव सत्संग प्रभाऊ। लोकहुं वेद न आन उपाऊ॥ अत: हमें सत्संग श्रवण करना चाहिए क्योंकि वही विवेक का स्रोत है। सत्संग को ज्ञान गंगा की उपमा दी गयी है जो समय के तत्वज्ञानी महापुरुष के श्री चरणों से निकली मानी जाती है। इस ज्ञान गंगा में नहाने से मनुष्य की चित्तवृत्ति शुद्घ हो जाती है और उसे विवेक की प्राप्ति होती है। यथा- मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥ एक विवेक प्राप्त मनुष्य को यह बताने की जरूरत नहीं होती कि वह अपने धन, समय और शक्ति का उपयोग कैसे करें। अर्थात वह सदैव उनका सत्कार्यों में ही उपयोग करता है। जिससे स्वयं का, उसके समाज और राष्टï्र तथा समस्त विश्व का भला होता है। अत: आज भी सदा की भांति हमारे बीच में ज्ञान के स्रोत ज्ञानदाता गुरु महाराज जी मौजूद हैं तो हम सर्वप्रथम अपने घट (हृदय) को उनके ज्ञानदीप से सजायें। तत्पश्चात संसार के कोने-कोने में, बिना किसी भेदभाव के हर मानव हृदय में इस ज्ञान का दीप जलाये जाने का मार्ग प्रशस्त करने के ्िरपुनीत कार्य में सहयोगी बनें। सच पूछिये तो ज्ञानोत्सव ही वास्तविक दिवाली है जो हर रोज और सदा सर्वदा की दिवाली है। कहा भी है- सदा दिवाली संत की, तीसों दिन त्योहार। अत: वास्तविक दिवाली मनाने के लिए हमें किसी खास चीज का इंतजार नहीं करना है बल्कि हमें गुरु महाराज जी द्वारा सुसंपन्न होने वाले ज्ञानोत्सव में बिना संकोच, भय और भेदभाव के भाग लेना है। तभी हम जाने-अनजाने होने वाली बुराइयों से ऊपर उठकर अपने दुर्लभ जीवन का भरपूर आनंद ले पायेंगे।
जीवन की सच्ची उपलब्धि प्रत्येक मनुष्य इस संसार में सुंदर व महान है, परंतु सही माने में वह किना सुंदर है, कितना सुंदर खजाना उसके ही अंदर छिपा है, इसको बोध उसे नहीं है। इस धरती पर जब-जब महापुरुषों का आगमन हुआ तथा उनका सान्निध्य जिन लोगों को मिला, उन्होंने ही जीवन की सुंदरता का सहीमानों में अहसास किया। इसलिये गुरु की महिमा अनंत बताई गई है। हर मनुष्य के अंदर ही सुखी होने की जन्मजात इच्छा है। इस इच्छा की पूर्ति के लिये वह जीवन भर मनसा, वाचा, कर्मणा प्रयास करता रहता है, परंतु यह खोज वह बाहर करता है। प्रयास करते-करते जीवन का अंत हो जाता है। परंतु हृदय का प्यासा ही रहता है। भूत व भविष्य की चिंताओं में ही वह रहता है, जब कुछ भी हाथ नहीं लगता तो मनुष्य बेचैन होता है। क्योंकि वह सच्चा सुखद अहसास जिससे सचमुच में हृदय तृप्त होता है न तो भूत में है और न ही भविष्य में, वह तो वर्तमान में है स्वयं अपने आप में विद्यमान है, अपने मन व इंद्रियों के वशीभूत होकर मनुष्य इतना बहिर्मुख हो जाता है कि वह अपने हृदय की पुकार नहीं सुन पाता, उसे यह आभास तक नहीं हो पाता कि वह इस संसार में आखिर क्यों हैं? गुरु जी कृपा से आज उस सच्चे प्रेम को, उस सुखद अहसास को अनुभव करना प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सांसारिक कर्तव्यों को निभाते हुये संभव है चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग, धर्म संस्कृति, रूप, रंग का क्यों न हो। बस आवश्यकता है खुले हृदय से, दीन-भाव से, जिज्ञासु भाव से ज्ञानदाता के समक्ष अपनी हार्दिक इच्छा जाहिर करने की। इस प्रकार जब किसी व्यक्ति के जीवन में अज्ञानता का पर्दा हटता है और ज्ञानदाता की कृपा हो जाती है तो वह अपने जीवन में, सच्चे मानों में इस जीवन के प्रति, ज्ञान के प्रति, ज्ञानदाता के प्रति कृतज्ञ होता है और वास्तव में यही जीवन की सच्ची उपलब्धि है। बहुत से व्यक्ति आत्म-विश्वास को घमंड मानते हैं। यह सरासर गलत है। आत्मविश्वास गुण है- जो आदमी को धीरज प्रदान करता है। घमंड दुर्गुण है- वह आदमी को गिराता है। घमंड व्यक्ति का दुश्मन है, आत्मविश्वास सच्चा मित्र है।
सच्चा मित्र आत्मविश्वास जीवन में सफलता का रहस्य है। आत्मविश्वास यदि मनुष्य कितनी भी मेहनत कर ले, परंतु उसे अपने पर भरोसा नहीं है तो वह सफल नहीं हो सकता। अपने पर जिसे विश्वास रहता है उसे अंदर से ही अलौकिक शक्ति का बल मिलता है। जन्म से ही कोई महान अथवा गुणवान पैदा नहीं होता, लेकिन दृढ़तापूर्वक अभ्यास से हरेक अपने में गुण पैदा कर सकता है। बहुत से विचारक ऐसे हुए हैं जिन्हें बचपन में बहुत डर लगता था, परंतु अच्छे संगत विचवरों से उनमें आत्मविश्वास जगा और वे ऐसे निडर बने कि दुनिया की कोई ताकत उन्हें नहीं डरा सकी। मनुष्य का मन चंचल है इसलिए बुद्घि भी स्थिर नहीं रहती। बिना बुद्घि स्थिर हुए आत्मविश्वास नहीं हो सकता। इसलिए सत्ïपुरुषों की संगत अति आवश्यक है। अस्थिर बुद्घि वाला व्यक्ति सूखी पत्ती की तरह हवा में उडऩे वाला, सदैव दूसरों पर ही निर्भर रहता है। परंतु जिसकी अपनी मजबूती होती है वह अपने बल पर चलता है। आत्मविश्वास पर खड़ा किया गया भवन हमेशा सुरक्षित रहता है। नि:संदेह आत्मविश्वास अनेकरों रोगों की दवा है, जहां व्यक्ति अनेक प्रकार भूत-भविष्य की चिंताओं में घुटता रहता है। और परिश्रम से जी चुराता है, वहीं आत्मविश्वासी को किसी प्रकार की असफलता मुंह नहीं देखना पड़ता। एक राजा पर किसी दुश्मन राजा ने चढ़ाई कर दी। राजा ने उसका मुकाबला किया। लेकिन हार गया। अपने प्राण बचाने के लिए जंगल में एक गुफा में शरण ली। जब राजा छिपकर बैठा था तो उसने देखा कि एक कीड़ा दीवार में चढऩे की कोशिश करता है, परंतु गिर जाता है। राजा उसी कीड़े के प्रयास को देखता रहा कई बार वह गिरा, परंतु कीड़े का प्रयास बराबर जारी रहा और अंत में उसे सफलता मिली। राजा सोचने गला कि इस छोटे से कीड़े ने हिम्मत नहीं हारी और आखिर दीवार पर चढऩे में सफलता मिल ही गई। उससे राजा को प्रेरणा मिली, भीतर का विवेक जागा और उसने सोचा जब इस कीड़े को सफलता मिली तो मैं तो मानव हूं। कोशिश करूं तो अवश्य मेरी भी जीत होगी। वह गुफा से बाहर निकला। उसने बिखरी सेना को एकत्रित किया और सैनिकों में भी आत्मविश्वास जगाया तथा अपना खोया हुआ राज्य पुन: हासिल कर लिया। बहुत से व्यक्ति आत्म-विश्वास को घमंड मानते हैं। यह सरासर गलत है। आत्मविश्वास गुण है- जो आदमी को धीरज प्रदान करता है। घमंड दुर्गुण है- वह आदमी को गिराता है। घमंड व्यक्ति का दुश्मन है, आत्मविश्वास सच्चा मित्र है।
ये जग है दो दिन का मेला मित्रो, बड़ी प्रसन्नता की बात है कि आप लोग जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर कुछ विचार सुनने और जीवन में आने वाली समस्याओं के समाधान के उपाय जानने के लिए यहां एकत्र हुए हैं। मैं आज आप लोगों के सामने इस बात को स्पष्टï करने जा रहा हूं कि इस संसार में किसी को सदा के लिए नहीं रहना है। जीवन की एक नियत अवधि गुजारने के बाद सबको यहां से चले जाना है। इसलिए मैं इस विषय पर चर्चा करूंगा कि ये जग है दो दिन का मेला। आशा है कि आप लोग इसे गौर से सुनेंगे और लाभ उठाने की भरपूर चेष्टïा करेंगे। सचमुच यह संसार हमारा स्थायी निवास नहीं है। जिस प्रकार किसी मेले में बहुत सारे लोग इक_ïे हो जाते हैं और मेला खतम होते ही सभी लोग अपने-अपने घर चले जाते हैं। उसी प्रकार इस संसार में रिश्ते-नातों, दोस्ती-दुश्मनी के बहाने लोग एकत्र होते हैं और नियत समय पर एक दूसरे से बिछुड़ते जाते हैं। किसी संत ने ठीक ही कहा है - रे मन ये दो दिन का मेला रहेगा। कायम न जग का झमेला रहेगा॥... यह मेरा है, यह मेरा है - रटते हुए जाने कितने राजा-महाराजा इस संसार से विदा हो गए, किंतु यह वसुधा किसी की नहीं हुई। यह राज्य मेरा है, यह घर मेरा है, यह मेरी दौलत है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी पत्नी है कहते हुए लोग जाने कब से मिथ्या भ्रम के शिकार होते आ रहे हैं। यह देखते भी हैं कि कोई इस संसार में स्थायी रूप से रहता नहीं। एक न एक दिन सबको इस संसार से विदा हो जाना पड़ता है। फिर भी मिथ्या भ्रम का शिकार होकर लोग संसार के क्षणभंगुर सुखों के पीछे आपस में लड़ते रहते हैं। इस प्रकार लड़ते-झगड़ते ही इस संसार से विदा होने की वेला कब आ जाती है, इसका किसी को पता ही नहीं चलता। मरने के बाद रिश्तेदार श्मशान तक ले जाते हैं और मृत शरीर को जलाने, जल में प्रवाहित करने या कब्र में दफनाने की रस्म अदा करने के बाद अपने रोजमर्रे के काम में लग जाते हैं। यह प्रक्रिया आज से नहीं, सनातन काल से जारी है। किसी ने ठीक ही कहा है - गुल चढ़ाएंगे लहद पर जिनसे यह उम्मीद थी। वो भी पत्थर रख गये सीने पे दफनाने के बाद॥ अर्थात जिन प्रियजनों से मैंने यह उम्मीद की थी कि मेरे मरने के बाद मेरे शव पर फूल चढ़ायेंगे, वे भी हमें निराश कर गये। वे भी मुझे दफनाने के बाद मेरे सीने पर पत्थर रख कर चले गये। शायर का कहना पूरी तरह ठीक है। इस संसार की प्रीति झूठी है। संसार में मिलने वाला आदर-सत्कार व सम्मान क्षणभंगुर है। संसार में मिलने वाला कोई भी सुख शाश्वत नहीं होता और जीव चाहता है शाश्वत आनंद। क्योंकि मूल रूप से वह परमानंद स्वरूप परमात्मा का ही अंश है जो उनसे बिछुड़ गया है। इसलिए उसकी चाहत में अब तक छटपटा रहा है। उसी आनंद को वह सांसारिक पदार्थों में ढंूढ़ा करता है। किन्तु क्षणभंगुर संसार में वह शाश्वत परम आनंद तो मिल ही नहीं पाता, किन्तु क्षणभंगुर विषयानंद में ही लगकर जीव अपना परम लक्ष्य भुला देता है। इस प्रकार बार-बार जनमने व मरने के चक्र में फंसकर जीव दुखी होता रहता है। लेकिन सामान्य तौर पर जीव ऐसा सोचता है कि यदि परमानंद न मिले तो सांसारिक आनंद तो मिले, लेना आनंद ही है क्योंकि यह आनंद से बिछड़ा हुआ उस परम आनंद को ढूंढता फिरता हैं- आनंद आनंद सब कोई कहे, आनंद गुरु ते जानेयां। आनंद पाने के लिए तो आज सारी दुनिया दौड़ रही है। खाने-पीने व मौज-मस्ती में लोग आनंद पाने के लिए ही संलग्न होते हैं। किंतु संसार के सभी सुखों का अंत दुख के रूप में होता है। अंत में मनुष्य को खाली हाथ ही इस दुनिया से कूच करना पड़ता है। वास्तव में शाश्वत आनंद पाने की युक्ति तो समय के सद्ïगुरु की अनुकंपा से ही हासिल होती है। संसार के आनंद तो एक अवधि के बाद निश्चित रूप से समाप्त हो जाते हैं और जीव दुखी हो हाथ मलता रह जाता है। जीव मन की कल्पनाओं में खोया-खोया संसारिक सुखों को ही शाश्वत समझ उसी में लीन हो जाता है। और एक दिन ऐसा आता है कि संसार का सारा ऐश्वर्य छोडक़र उसे सदा के लिए इस संसार से विदा हो जाना पड़ता है। लेकिन उल्टे-सीधे विचारों में खोकर मनुष्य परम सत्य सिद्घांत को भूल जाता है और सांसारिकता की बेड़ी में जकड़ा रहता है। इस बात को इस दृष्टïांत से समझा जा सकता है। एक समय की बात है कि सांसारिकता में पूरी तरह से डूबे एक सेठ को देखकर एक महात्मा को दया आ गयी। वे सेठ के पास परलोक सुधारने का उपदेश देने के लिए पहुंचे। काफी दिनों तक वे सेठ को नाना प्रकार के दृष्टïांत देते हुए यह समझाने का प्रयत्न करते रहे कि यह संसार सपने की तरह है। इसका मोह त्याग कर भगवान की भक्ति करने में ही भलाई है। महात्मा के उपदेश को सेठ ढंग से समझ नहीं पाया और सोचा कि ये तो खुद विरक्त संन्यासी हैं और चाहते हैं कि मैं भी घर-बार त्याग दूं। उसने महात्मा से प्रार्थना की - महाराज! आप की बात पूरी तरह सही है। मैं भी चाहता हूं कि भगवान की भक्ति करना। किंतु अभी बच्चे अबोध हैं, बड़े होने पर जब उनकी शादी कर लूंगा तब परलोक सुधारने का यत्न करूं। तब महात्मा बोले - ये सांसारिक काम तो तेरे न रहने पर भी होते रहेंगे। यह तो तुम्हें अपने घर की चौकीदारी मिली है भगवान द्वारा। लेकिन तुम खुद मालिक बन बैठ गये। ठीक है, तुम अभी अपनी घर-गृहस्थी संभालो। बाद में भगवान की भक्ति कर लेना। लेकिन याद रहे, भवसागर से मुक्ति तो भगवान की भक्ति करने से ही मिलेगी। समय पाकर सेठ के सभी बच्चे बड़े हुए और शादी होने के बाद अलग हो गये। फिर वह महात्मा सेठ के पास आए और बोले - सेठ जी! अब ईश्वर की कृपा से सब कार्य सिद्घ हो गए हैं, कुछ समय निकाल कर भगवान का भजन-सुमिरन करो। बेड़ा पार हो जाएगा। सेठ बोला- महाराज! अभी तो पोते भी नहीं हुए। पोतों का मुंह तो देख लेने दीजिए। तब महात्मा बोले- मैं तुझे त्यागी बनने के लिए नहीं कहता। तू मूर्खतावश मेरे भाव को नहीं समझ पा रहा है। मेरे कहने का भाव तो यह है कि संसार के मोह और अज्ञानता के चंगुल से मन को हटाकर प्रभु की भक्ति में लगाओ। तब सेठ बोला- यदि मन प्रभु की भक्ति में लग गया तो संसार के धंधे कौन करेगा? वह मन कहां से लाऊंगा? बिना मन लगाये दुनिया के काम-धंधे और सांसारिक कर्तव्य पूरे नहीं हो पाते। महात्मा बोले- मैं तुम्हारे ही उद्घार के लिए कह रहा हूं कि बिना भगवान की भक्ति किए कल्याण नहीं होगा। सेठ बोला- पहले संसार के काम-धंधों से मुक्त तो हो लेने दो। परिवार का कल्याण पहले कर लूं, फिर आपकी सुनूंगा। इस प्रकार समय गुजरता गया और एक दिन सेठ का स्वर्गवास हो गया। प्रारब्धवश वह सेठ छोटा पिल्ला के रूप में पैदा होकर पुन: उसी घर में आ गया। तब उसके पोते ने रसोई में उसे घुसा देखकर जोर से डंडा मारा। डंडा लगते ही वह मर गया और फिर सांप का जन्म लेकर उसी घर में रहने लगा। एक दिन घर वाले सांप देखकर डरे और उसे मार दिया। फिर मोहपाश में बंधकर पुन: उसी घर की गंदी नाली में एक मोटे कीड़े के रूप में पैदा हुआ। उस कीड़े को देखकर सब घर वाले बड़े चकित हो गये। उन्हीं दिनों वे महात्मा भी घर में पधारे हुए थे। सबने महात्मा जी को वह मोटा कीड़ा दिखाया। तब अंर्तदृष्टिï से उस महात्मा ने देखा तो पाया कि यह तो वही सेठ है। उसकी ऐसी दुर्गति देखकर उस महात्मा ने अपने जूते से उस पर प्रहार किया जिससे वह कीड़ा वहीं मर गया और सद्ïगति पाकर अगला जन्म में मानव शरीर पाया और फिर उसी महात्मा का सेवक बना जो समय के सद्ïगुरु भी थे। यह दृष्टïांत कोई ऐसी कथा नहीं जिसके सत्य होने का दावा किया जाए। किंतु इसे असत्य भी नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टïांत के माध्यम से लोगों को जीवन के वास्तविक उद्देश्य को पाने के लिए प्रेरणा दी गई है जिससे मनुष्य क्षणभंगुर संसार के मोहपाश में न फंसे और अविनाशी सत्य से जुडऩे की चेष्टïा आज और अभी से प्रारंभ कर दें। अंतत: मनुष्य को परमात्मा की भक्ति करके ही अपना जीवन कृतार्थ करना चाहिए। इसी वजह से सभी महापुरुषों ने मानव शरीर का सदुपयोग भगवान की भक्ति करने में ही बताया है। गुरुवाणी भी कहती है - कहु नानक भजु राम नाम नित जाने होत उधार। अर्थात भगवान के नाम का भजन सुमिरण करने में ही जीवन का अधिकांश समय बिताना चाहिए। ऐसा करने से ही भवसागर से जीव का उद्घार होता है। वास्तव में संसार के काम धंधे जिनसे पेट भरता है और सांसारिक वैभव व सुख-समृद्घि की अभिवृद्घि होती है किंतु अंत समय में उन्हें यहीं छोडक़र जाना पड़ता है। कोई भी चीज साथ नहीं जाती। अविनाशी प्रभु की भक्ति से जो आनंद मिलता है, वही शरीर छूटने के बाद भी काम आता है। मानव तन के रूप में जीव को एक सुअवसर मिला हुआ है, कभी भी इस मौके से नहीं चूकना चाहिए। यह संसार तो दो दिन के मेले की तरह है जिसमें जीव अनेक प्रकार के रिश्ते-नातों के रूप में एक जगह इक_ïे होते हैं और कुछ समय के बाद संसार से विदा भी हो जाते हैं। माया-मोह में फंसा मनुष्य चाहता है कि संसार का सारा दायित्व मैं जीते जी निभा लूं। भगवान की भक्ति को मनुष्य हमेशा भविष्य पर टालता रहता है। साधु-संत लोगों को बार-बार यही समझाते हैं कि भगवान की भक्ति करने में ही भलाई है। सांसारिक झमेले तो दो दिन के मेले की तरह हैं। लोग अज्ञानता के अंधकार में इस प्रकार भटक रहे हैं कि उन्हें इस सत्य का अहसास ही नहीं होता कि यह संसार दो दिनों का मेला है। यहां किसी को सदैव नहीं रहना है।